Saturday, January 6, 2018

पुस्तक-मेला, लेखकीय झोला और हामिद



कौशलेंद्र प्रपन्न
पूरे सालभर के बाद मेला आया है। मेला वो भी किताबों का। हामिद एक साल से इंतज़ार में था। उसे भी मेले में बोलने का मौका मिलेगा। उससे भी किताबों के लोकार्पण के निमंत्रण मिलेंगे। वो भी लंबा और चमकदार कुर्ता और बंडी पहन कर मेले में जाएगा। हासिद के दोस्त नए नए कपड़ां, किताबों, कवर पेज के साथ मेले में जाने के लिए हुलस रहे थे। लेकिन हामिद की किताब शाम तक उसके हाथ में नहीं आई। परेशान हामिद इधर उधर फोन करने में लगा था। प्रकाशक बार बार समझा रहे थे कोई बात नहीं। यहां कौन लोकार्पणकर्ता पढ़कर आता है। कवर पेज दिखा दीजिए बोलने वाले उसी पर बोलते रहेंगे। हामिद की अम्मी ने कहा अपने साथ झोला लेते जाना। और कुछ हो न हो कम से कम किताबें बटोरने में आसानी होगी। हामिद नहा धोकर मेले के लिए निकल गया। आखि़र उसकी भी तो किताबें आनी थीं। बड़ी मुश्किल से सिंह और वर्मा जी तैयार हुए थे।
किताबों का मेला हर साल की भांति इस वर्ष भी पाठकों को बुला रहा है। न केवल पाठक बल्कि लेखक, प्रकाशक, वितरक आदिके लिए एक ऐसा उत्सव होता है जहां ये तीनों चारों घटक एक ही छत के नीचे मिला करते हैं। लाखों किताबें मेले आती हैं। उनकी ढुलाई,बिक्री, साजो सज्जा आदि में भी लाखों रुपए खर्च होते हैं। उम्मीद इस बात की होती है कि पाठक और खरीद्दार आएंगे। कम से कम पाठक आएं न आएं संस्थाएं आएंगी तो उनकी एक मुश्त बिक्री संभ्राव हो जाएगी। पिछले साल के मेले पर नोट बंधी का असर साफ देखा और महसूसा गया था। लोगों के पास पंड़ाल में बिक रहे पिज्जा, कॉफी महंगी चीजों को खरीदने के पैसे थे किन्तु जब किताबों की बारी आती है तब हमारी जे़ब हल्की हो जाती है। वजह प्राथमिकता का है। हमारे जीवन में पढ़ना, किताबें, शिक्षा आदि की जगह धीरे धीरे नहीं बल्कि बहुत तेज़ी से सिमट रही हैं। हम किताबें भी वैसी खरीदने से नहीं हिचकते जो बताती हो कि सफल वक्ता कैसे बनें। हम कहां अपने पैसे लगाएं कि कम समय में ज़्यादा रिटर्न मिल सके। बिज़नेस, मैनेजमेंट आदि की किताबें जिस तदाद में बिक रही हैं। उस अनुपात में साहित्य की किताबें कम बिकती हैं। उसमें भी जो मनोरंजन, उमंग, हास्य प्रधान किताबों होती हैं उसको हाथों हाथ पाठक उठा लेते हैं। मसलन कोई किताब विवादास्पद मुद्दे को केंद्र में रखकर लिखी गई है।तब भी किताब की बिक्री बढ़ जाती है।समझने की आवश्यकता हैकि क्या किताबें महज विवाद पैदा करने, सनसनी फैलने व बिक्री के लिहाज़ से लिखी जाती हैं। माना जाता हैकि साहित्य की भूमिका समाज व पाठक को संवेदनशील बनाना भी होता है।प्रो. कृष्ण कुमार बड़ी शिद्दत से मानते और कई जगहों पर जिक्र भी कर चुके हैं कि साहित्य और ख़ासकर हिन्दी कविता, कहानी का शिक्षण स्कूली स्तर पर जिस लचर तरीके से हो रहा है उसे देख कर बहुत क्षोभ होता है। साथ ही एक पीड़ा भी होती है कि हिन्दी साहित्य के विभिन्न विधाओं में इतने विद्वान लेखक हुए हैं किन्तु उनके पाठों का शिक्षण उतनी ही गैर जिम्मेदाराना तरीके से स्कूलों में शिक्षक पढ़ाते हैं। प्रो. कुमार मानते हैं कि यदि कहानी कविता को बेहतर तरीके से पढ़ा-पढ़ाया जाए तो काफी हद तक हम हिन्दी को बचाने में सफल हो सकेंगे।
आज की तारीख में जिस संख्या में साहित्य की विभिन्न विधाओं में लिखी जा रही हैं उनमें कविता,कहानी, उपन्यास ही प्रमुखता पाती हैं। वहीं दूसरी विधाएं लगभग उपेक्षित रह जाती हैं। उसमें भी ख़ासकर बाल साहित्य तो हाशिए पर ही जा चुका है। बाल साहित्य के नाम पर जिस प्रकार की कहानियां पढ़ने को मिलती हैं। उसे देखकर लगता है कि हिन्दी और गैर हिन्दी भाषायी साहित्य जगत् में बाल साहित्य को लेकर गंभीरता छिजती जा रही है। बाल साहित्य के साथ ही कथेत्तर साहित्य की स्थिति भी शोचनीय है। डायरी, यात्रावृतांत, रिपोतार्ज़, संस्मरणण आदि में जिस प्रकार की रचनाएं हो रही हैं या तो वे रोशनी में नहीं आतीं या फिर उन्हें समीक्षा की परिधि से ही बेदख़ल कर दिया जाता है। मेले में न केवल इस मेले में बल्कि पिछले कई मेलां का विश्लेषण करें तो पाएंगे ि कवे ही किताबें ज़्यादा बिकी जिन्हें समीक्षक मिले, जिन्हें रोशनी में लाने वाली चर्चाएं मिलीं या फिर बाज़ार में जिनके नामों को खूब बजाया गया। ऐसे में अच्छी से अच्छी किताबें बिना पढ़ी कहीं पड़ी रह जाती हैं। जिन किताबों को समीक्षक मिले, जिन्हें लोकार्पण का अवसर मिला वो कुछ देर के लिए कवर से बाहर झांक पाईं बाकी वहीं कार्टून में बंद रह गईं।
हामिद को मेले में किसिम किसिम के लोग मिलेंगे। हामिद की अम्मी ने ताकीद किया था कि बचना ऐसे वैसे लेखकों से जो सब्जबाग दिखाएंगे किन्तु मार्गदर्शन करने के नाम पर तुमसे कुछ चाह रखेंगे। कुछ मदद की मांग करेंगे। किन्तु हामिद न माना। वो उन झोला बटोरू लेखकों की गिरफ्त में आ ही गया। उसकी किताब का लोकार्पण होना था। सो समय पर कोई न आ सका। न वो लेखक जिन्होंने वायदे किए थे। थे तो वे वहीं उसी मेले में किन्तु मंच पर हामिद को साथ होने की पहचान से बचना चाहते थे। सो हामिद मंच पर प्रकाशक और घर एक एक दो सदस्यों के साथ नज़र आया। अम्मी भी नहीं आई। क्योंकि उन्हें सिलाई, बुनाई करनी थी। वो तो हामिद का मन रखने के लिए किताब छपवाने को कह दिया था। पैसे भी दे दिए थे। हामिद आज बहुत उदास था। दूसरी ओर दूसरे कुर्ताधारी लेखक,कवि महोदय दूसरे स्टॉल पर हंसते, दांत निपोरते नज़र आए। आएंगे ही क्योंकि उस प्रकाशक ने उनकी कविता की किताब जो छापी थी।
पिछले उन्नीस सौ चौरान्बे से पुस्तक मेले के आयोजन का तजर्बा रखने वाले राष्ट्रीय पुस्तक न्यास के संपादक का कहना है कि उन्होंने जिस तरह की लेखकीय झिझलापन, रीढ़विहीन बरताव भारतीय पुस्तक मेले में देखा है वैसी स्थिति दूसरे देशों में नहीं देखी। वो अपना अनुभव साझा करते हुए बताया कि अन्य देशों में लेखकों को सुनने के लिए श्रोता-पाठक डालर कर देते हैं। लेखकीय वक्तव्य को सुनने के लिए श्रोता-पाठक जब पैसे देता है तब लेखक और पाठक के संवाद कहीं न कहीं सार्थक दिशा में भी जाती है। यहां तक कि लेखक से बातचीत करने, उसकी रचनाओं और रचना प्रक्रिया पर चर्चा करने के लिए श्रोता-पाठक टिकट खरीदते हैं। वहीं भारतीय पुस्तक मेले में लेखक ऐसे जनसुलभ होते हैं जैसे शौचायलयों की दीवारों पर लगे पोस्टर। कोई भी कहीं भी पढ़ ले और आग बढ़ जाए। सच पूछा जाए तो आज की तारीख में लेखकों ने अपनी कीमत और सम्मान खु़द ही कम किया है। कई ऐसे लेखक कवि, व्यंग्यकार हैं जो मेले में सुबह से शाम और रात तक यहां वहां जहां तहां बिछते,पसरते और रिरियाते नज़र आते हैं। हो भी क्यों न साल भर कमरे में कैद लिखते-पढ़ते एकांत जीवी लेखक साल में एक बार ही सही अपना गला साफ करते हैं। कुछ लेखकों के चेहरे इतने रिकार्ड हो चुके होते हैं कि वही चेहरे तकरीबन हर एक दो दुकानें (बुक स्टॉल, मंच) पर बोलते, खखारते नज़र आएंगे। सुबह ख़ाली झोला लेकर आते हैं और शाम तक उनके पास कई झोले, किताबें हो जाती हैं।

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