Tuesday, October 23, 2012

"श ब्दों के नए मैनेजर
-कौषलेंद्र प्रपन्न
पिछले दस साल में हिंदी में कितने नए युवा नेखकों को प्रकाषकों ने छापा? कितने युवा कथाकारों, उपन्यासकारों की कृतियां 5,000 से ज्यादा प्रति बिकीं? क्या आप बता सकते हैं कि कितने युवा कथाकारों, कवियों की पृश्ठभूमि साहित्यिक रही है। यानी जिनकी रूचि, षिक्षा आदि साहित्य में हुआ हो और उन्होंने रचनाएं स्वतंत्र रूप से लिखनी षुरू कीं। सवाल और भी उठ सकते हैं लेकिन यहां सवालों से बड़ी जो बात है वह यह कि एक तरफ हिंदी में बड़े ही गिने चुने नाम आएंगे जिनकी किताबें साल भर में 5000 से अधिक बिकी हों। बिक्री पर न भी जाएं तो उनकी पठनीयता कितने पाठकों तक रही इसका अंदाजा लगाना हमारा मकसद नहीं बल्कि, इसकेे पीछे की मुख्य बात को उजागर करना है। दूसरी ओर अंग्रेजी को लेकर हमारे अंदर जिस तरह की नफरत भरी हुई है वही भाशा आज की तारीख में हमारे खास युवाओं को न केवल पैसे, प्रसिद्धि बल्कि एक अलग पहचान दिला रही है। वो न तो किसी साहित्य घराने से ताल्लुक रखते हैं और न ही जिन्होंने कभी पढ़ाई के दौरान लिट्रेचर को बहुत चाव से पढ़ा ही होगा। लेकिन उन्होंने जो रास्ता चुना वह उन्हें अच्छी नौकरी, पैसे, इज्जत एवं समाज में एक पाठक वर्ग मुहैया कराया। उन्होंने पेषे के तौर पर बेषक मैनेजमेंट, काॅल सेंटर, आई आई टी व अन्य दूसरे क्षेत्रों का चुनाव किया हो, लेकिन एक अच्छी नौकरी पा लेने के बाद उन्होंने लिखने की भूख मिटाने की ठानी। आज चेतन भगत को लेखन की दुनिया में आए 10 साल भी मुष्किल से हुए हैं, लेकिन आज उसके पास पैसे, प्रतिश्ठा, पाठक वर्ग एवं प्रकाषक सब हैं। चेतन हों या करन बजाज या फिर मंडर कोकटे इन्हें मालूम था कि नौकरी में रहते पैसे कमाए जाए सकते हैं जो तकरीबन सभी आईआईटीयन कमा रहे हैं। मुझमें क्या खासियत है जो उनसे अलग पहचान दिला सकती है। उन्होंने अपने अंदर षब्दों की अपार षक्तिपूंज को जगाया और आज देखते ही देखते बाजार तो बाजार यहां तक कि हिंदी व अन्य क्षेत्रिय भाशाओं के लेखकों को सोचने पर मजबूर किया।
हिंदी व अन्य क्षेत्रिय भाशाओं में एक युवा लेखक की उम्र 20 से लेकर 50-55 तक की होती है। बेषक महाषय की किताबें कहानी, कविता एवं उपन्यास बाजार में हों, लेकिन उनकी पहचान हिंदी में युवा लेखक की ही रहती है। जब तक किसी मठ से उन्हें प्रमाणित न कर दिया जाए कि फलां ने क्या खूब लिखा है। कुछ पुरस्कार उनकी झोली में हो तो बात में वजन तौलने वाले भी खड़े हो जाते हैं। वहीं अग्रेजी में कुछ अलग फिज़़ा है। यहां जो 24 साल का अनाम लेखक भी अपनी किताब की सेलिंग के आधार पर अपनी पहचान बना लेता है। पिछले 10 सालों में जिस प्रकार से अंग्रेजी में लेखक उभरे हैं उसे देख कर एक तोश जरूर होता है कि जो पाठक की कमी का रोना रोते हैं उनके इस रोदन के पीछे क्या वजह हो सकती है। दरअसल हिंदी में पहले लिखना षुरू करते हैं फिर बाजार और प्रकाषक की मांग देखते हैं। जबकि अंग्रेजी में लेखक पहले पाठक वर्ग को ध्यान में रखते हैं फिर विशय का चुनाव करते हंै। किस प्रकार की राइटिंग युवाओं को भाएगी उसकी पहचान कर फिर कलम उठाते हैं। लेकिन हिंदी में जरा स्थिति उलट है पहले हम अपने मन की लिखते हैं। वही लिखते हैं जिसे पूर्व के लेखकों ने लिखा है। इसके पीछे एक कारण यह हो सकता है कि नए लेखक को सदर्भ के तौर पर सामग्री मिल जाती है। फिर वह पूर्व के कथानक को नए संदर्भों में रच डालता है। उसे इस बात से कोई खास लेना नहीं होता कि इसको पढ़ने वाले पसंद भी करेंगे या नहीं। प्रकाषक कभी भी घाटे का सौदा आखिर क्यों करें। पैसे फसाना कोई नहीं चाहता। वह देखता है कि फलां लेखक की किताब पिछले साल कितनी बिकी थी। उसकी नई पांडूलिपि पर जुवा खेला जा सकता है। इसलिए चेतन भगत, किरण बाजपेई व अन्य अंग्रजी लेखकों को बड़ी से बड़ी एवं छोटी प्रकाषन कंपनियां छापने से गुरेज नहीं करतीं।
अगर गौर से इन नए युवा षब्दों के मैनेजरों की रचनाओं की कथानकों उनके द्वारा चुनी गई प्लाट को गंभीरता से देखें तो पाएंगी कि उनके प्लाट अमूमन काॅलेज के प्रांगण में पलने, बनने, टूटने वाले प्रेम के इर्द- गिर्द घूमते हैं। थोड़ा- सा मसाला और सरल भाशा में परोसने की कला में माहिर षब्द मैनेजर आज पाठकों के बीच स्थान तो बना ही चुके हैं वहीं प्रकाषकों के भरोमंद लेखक भी। वहीं हिंदी में विपिन चंद पांडेय, नीलाक्षी सिंह, संजय कुंदन, कुंदन आदि को कुछ खास प्रकाषकों के अलावा कितनों ने छापने में दिलचस्पी दिखाई। साथ ही सवाल यह भी है कि इन युवा लेखकों की किताबें बाजार में अपने दम पर कितनी निकल पाईं। यह एक व्यावहारिक पहलू है जिसे नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। आज यदि हिंदी या अन्य भारतीय भाशाओं में पाठकों की कमी की बात प्रमुखता से उठाई जा रही है तो इसके पीछे के अन्य बुनियादी कारणों का भी पड़ताल करना जरूरी होगा।
निर्मल वर्मा ने इन पंक्तियों के लेखक से एक बातचीत में कहा था कि लेखक को विशय का चुनाव बड़ी ही सावधानी से करना चाहिए। विशय कोई भी धांसू या फिसड्डी नहीं होते। बल्कि यह लेखक पर निर्भर करता है कि उसने जिस विशय को चुना है उसके साथ पूरी ईमानदारी बरती या नहीं। हिदंी में इन दिनों नए युवा लेखकों की फसल लहलहा रही है। बड़े लेखकों को इन नए कलमों से काफी उम्मीद है। उनकी नजर में आज की लेखनी नए तेवर, कथानक एवं षैली में ताजगी के साथ दस्तक दे रहे हैं। आज के हिंदी व अन्य भाशायी युवा लेखकों के पास भी अंग्रेजी वर्ग के लेखकों के बरक्स विशय हैं। वो भी उतनी ही बखूबी कलम चलाने के हुनर में माहिर हैं, लेकिन सवाल यह उठता है कि तुरंत एक वर्ग सामने झंड़ा लेकर खड़ा हो जाएगा कि यह भी कोई साहित्य है। इससे साहित्य की हानि होगी। षुद्धता बनाए रखने के लिए जरूरी है कि ऐसे लेखकों को दूर रखा जाए। वहीं दूसरी तरफ लिखने की पूरी छूट है जो लिखों, खूब लिखों, खूब बिको और नाम कमाओं के सिद्धांत पर चला जाता है। आज जरूरत है कि अन्य भाशाओं में भी युवा लेखकों के साथ ही कलम के सिद्धों को लिखने से पूर्व पाठक वर्ग की रूचि, बिक्री के लिए विशय के चुनाव के वक्त चूजी हों तो हिंदी व अन्य भाशाओं में भी पाठकों की कमी नहीं है। अंग्रेजी के हाल के बेस्ट सेलर किताबों की अनुदित कृतियां बाजार में खूब बिक रही हैं। उसके भी पाठक हैं। प्रकाषकों ने भी अंग्रेजी के बेस्ट राईटरों को अनुवाद कर छापने में परहेज नहीं किया।
 

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