Saturday, January 7, 2012

दीवार बोल उठी

फ़र्ज़ करें अगर दीवार बोलने लगे तो क्या क्या बोल जायेगी. सब कुछ जो दीवार के पीछे होता है. पतली गली जिस को दीवार अलगाती है. उस तरफ की बात्यें भी जगजाहिर हो जायेगी. कितनो की धडकनें रुक जायेगी. कुछ तो बेवा हो फिरेंगें.
कल यूँ ही कुछ हवा. अचानक दीवार हिलने लगी. मुझे लगा भूकंप होगा. थम जाएगा. मगर भूकंप से भी ज्यादा था. दीवार जो बोलने को बेताब हो रही थी.
कहने लगी-
अबे क्या सोच रह है? तेरी पगार बढ़ेगी या उसके हिस्से में जाएगा मोटा उछाल. तुझे ठेंगा मिलेगा या उसको न्यू कार की चाबी. इस बार क्या वो फिर दो तीन ट्रिप विदेश का लगाएगी और तू देश के सड़ेले शहर में घूम आएगा.
दीवार बोहोत बोल रही थी. जरा भी सोहा नहीं रह था. मैंने कहा चुप कर बदजात. तू कब से बोलने लगी. अब तलक तो सुनना ही तेरा काम था. ये जबान कब चलाने लगी. तुझे बोलने का सहूर कहाँ है जो बोलने को बेक़रार है.
इतना सुनना था की दीवार भी आखीर हमहे बीच ही तो रहती है. गुस्सा आ गया. मुह बिचकाते हुवे कहा,
मैंने सूना है कल तुझे नीला लिफाफा मिलने वाला है...
अब मुझे काटो तो खून नहीं. मुह लिए बैठ गया.
इस पर दुबारा दीवार के जबान चल पड़े सूना तो यह भी है शैली को इस बार बॉस ने तीन बार विदेश यात्रा की पलान्न की है. उसे तो इस बार के ट्रिप में बहाद कीमती चीजें भी दी है. तू तो बस अपनी चोच मत ही खोला कर सारा किया कराया चौपट कर देता है. उसको देख, जहां जितना बोलना होता है उतना ही खुलती है. और इक तू ही शुरू हुवा नहीं की बस शताब्दी फेल करता है.
सुनते सुनते था गया. मन में आया की इक लात मर कर इस दीवार को ही बीच से गिरा दूँ. उधर जो हो रहा है वो दीखता ह्राहे. मगर पैर में मोच जो आ गया.  

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