Tuesday, October 23, 2012

बाल-साहित्य से प्रभावित बचपन 
-कौशलेंद्र प्रपन्न
आज हमारे पास ऐसे कितने दादा-दादी, नाना-नानी, मां-बाप हैं जो बच्चों को कहानियां सुनाते हैं? यदि सुनाते भी हैं तो वे कहानियां कौन- सी होती हैं? साथ ही कुछ और भी इसी तरह के अन्य सवाल यहां उठने लाज़मी हैं। कथा कहानियों से बच्चों का संबंध बेहद पुराना है। वही वजह है कि आज भी हमारे अंदर कोई न कोई कहानी जिं़दा है जो हमने बचपन में सुनी थी। बड़ी ही दुख के साथ कहना पड़ता है कि आज के बच्चों को कहानियों का स्वाद न के बराबर मिल पा रहा है। कहानी के नाम पर नैतिकता, मूल्य व आदर्श आदि ठूंसने को बेताब कहानी व बाल साहित्य अटी हुई हैं। हर कहानी के बाद सवाल इस कहानी से कया सीख मिलती है? क्या हर कहानी के पीछे कोई न कोई सीख मिलना जरूरी है? क्या कहानियां महज कोई न कोई शिक्षा, नैतिकता व संदेश देने के लिए ही लिखी जाती हैं या फिर कुछ कहानियां महज मनोरंजन के लिए भी होती हैं? कथासत्सई, पंचतंत्र, बेताल पचीसी, तेनाली राम, अकबर बीरबल, चंदामामा, नल-दमयंती, सवित्री आदि की कथा परंपरा भारत में बेहद पुरानी हैं। लेकिन समय के साथ कहानियों के कथावस्तुओं में बदलाव देखे जा सकते हैं।
बाल साहित्य व बच्चों को विमर्श की परिधि में रख कर जो भी साहित्य लिखे गए हैं वो दरअसल बच्चों के लिए नहीं, बल्कि बड़ों के द्वारा बड़ों को संबोधित लेखन ज्यादा मिलता है। इन साहित्यों में बच्चे महज चिंता के तौर पर उभर कर आते हैं। यदि हम हिंदी साहित्य के इतिहास के आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी, काल ख्ंाड़ यानी 1900 से 1920 तक पर एक विहंगमदृष्टि डालें तो पाते हैं कि ‘सरस्वती’ पत्रिका में द्विवेदी के संपादकत्व काल 1903-1920 तक में उस समय के  समकालीन लेखकों, साहित्यकारों, कवियों आदि की रचनाओं को व्यापक स्तर पर सुधार कर प्रकाशित किया जा रहा था। इस काल ख्ंाड़ में बाल- लेखन में कौन कौन सक्रिय थे इसकी जानकारी साहित्येतिहास में नगण्य है। यदि समग्रता से इस काल खंड़ व इससे पूर्व भारतेंदु काल में तो कुछ रचनाएं मिल भी जाती हैं पर उसे पर्याप्त नहीं कह सकते। हालांकि भारतेंदु ने ‘बाल बोधिनी’ पत्रिका निकाल रहे थे लेकिन बाकी के रचनाकार तकरीबन बाल- साहित्य पर सम्यक लेखन न के बराबर किया है। द्विवेदी काल खंड़ से निकल कर जब हम प्रेमचंद की रचनाओं को टटोलते हैं तो इनके साहित्य में बाल मनोविज्ञान और बाल जगत् पर केंद्रीत रचनाएं मिलने लगती हैं। इनकी कहानी गिल्ली डंड़ा, ईदगाह का हामिद आज भी कई कोणों से विवेचित होता रहा है। साथ ही ‘मंत्र’ कहानी को भी भुल नहीं सकते। वहीं दूसरी ओर विश्वंभरनाथ शर्मा कौशिक की कहानी ‘काकी’, सुदर्शन की कहानी ‘हार की जीत’ ख़ासे महत्वपूर्ण मानी जाती हैं। इससे आगे विष्णु प्रभाकर, सत्यार्थी, नागार्जुन आदि ने भी बाल साहित्य को नजरअंदाज नहीं किया। इन्होंने भी बच्चों को ध्यान में रखते हुए बच्चों के लिए कहानियां, कविताएं लिखीं। साथ ही निरंकार देव, कृष्ण कुमार के संपादकद्वे द्वारा तैयार बच्चों के लिए कविता की किताबें मिलती हैं। इसके साथ ही बच्चों की सौ कहानियां, बाल कथा, बच्चों की रोचक कहानियों का दौर भी मिलता है। 1970 के दशक में बालकृष्ण देवसरे, विभा देवसरे, प्रकाश मनु, कृष्ण कुमार आदि ने बच्चों की जरूरतों, रूचियों को ध्यान में रखते हुए बच्चों के लिए रचनाएं कीं।
बाल- साहित्य की व्यापक विवेचना करने से पहले हमें भारतीय भाषाओं के साथ ही अंग्रेजी में भारतीय लेखकों की रचनाओं को भी विमर्श में शामिल करना होगा। जिस प्रचूरता से हिंदी के अलावा भारत की अन्य भाषाओं में रचनाएं मिलती हैं उससे एक संतोष जरूर मिलता है कि कम से कम भारत में बाल साहित्य उपेक्षित नहीं है। चंदामामा, नंदन, बाल- हंस, पराग आदि पत्रिकाएं साक्षी हैं कि सत्तर के दशक के बाद के बच्चों को इन पत्रिकाओं का साथ मिला। वहीं अंग्रेजी में आर के नारायण की लेखनी धुआंधार चल रही थी। ‘मालगुडीडेज’ इसका जीता जागता उदाहरण है। इस उपन्यास की लोकप्रियता ने ही दूरदर्शन पर धारावाहिक प्रसारण को विविश किया। इनके पात्रों को जीवंतता तो मिली ही साथ ही खासे प्रसिद्ध भी हुए। वहीं दूसरी ओर गुलज़ार के योगदान को भी कमतर नहीं कह सकते। ‘पोटली वाले बाबा’, ‘सिंदबाद’, ‘मोगली’ आदि के गीत एवं कहानियां न केवल कर्णप्रिय हुईं। बल्कि बच्चों में बेहद पसंद की गईं। ‘चड्डी पहन के फूल खिला है फूल खिला है’ अभी तक बच्चों एवं बड़ों को गुदगुदाते हैं। वहीं सिदबाद जहाजी का टाइटिल साॅंग ‘डोले रे डोले डोले डोले रे/ अगर मगर डोले नैया भंवर भंवर जाय रे पानी’। गुलज़ार ने बच्चों के लिए जिस प्रतिबद्धता से बाल गीत, कविताएं लिखीं वह आज तलक लोगों की स्मृतियों में कैद हैं।
पं विष्णु शर्मा रचित पंचतंत्र की विभिन्न कहानियों को आधार बनाकर अलग-अलग लेखकों ने अपनी परिकल्पना के छौंक लगा कर पुनर्सृजित किया। खरगोश और कछुए की दौड़, प्यासा कौआं, लोभी पंडि़त, लालची लोमड़ी, ईमानदारी का फल, आदि कुछ ऐसी प्रसिद्ध कहानियां हैं जिसे 1960 के दशक से लेकर आज भी बच्चे पढ़कर आनंदित होते हैं। इन कहानियों की खूबी यही है कि इनमें जीव जंतु, सामान्य प्राणि शामिल हैं। इसके पीछे नैतिक शिक्षा देने का उदेश्य तो है ही साथ ही बच्चों का मनोरंजन करना भी एक महत्वपूर्ण उद्देश्यों में से एक है। तेनालीराम, अकबर बीरबल, शाबू, चाचा चैधरी, मामा-भांजा आदि बाद की चित्र कथाएं भी बच्चों में खासे लोकप्रिय हुईं। लेकिन जो आनंद एवं पढ़ने की लालसा पंचतंत्र की कहानियों को लेकर मिलती हैं वह इन चित्रकथाओं में कम है। इन चित्रकथाओं को पढ़ने वाले बच्चे मां-बाप, अभिभावकों से छुप कर किताब में दबा कर अकेले में पढ़ते थे। जबकि पंत्रतंत्र की कहानियों की किताबें अभिभावक स्वयं खरीद कर देते थे। इसके पीछे क्या कारण है। वजह यही था कि इनमें साकाल, शाबू, एवं अन्य पात्र हिंसक, बच्चों में आक्रामक्ता, गुस्सा आदि के भाव को जागृत करने में मदद करते थे। हिंसा, घृणा, आक्रामक्ता जैसे भाव को पहले इन चित्रकथाओं में स्थान मिला। जब इस तरह की कथा शृंखलाएं पसंद की जाने लगीं तब इन्हीं का दृश्य श्रव्य माध्यमों में ढ़ाल कर परोसा जाने लगा। 
बच्चों के खेल खिलौनों के निर्माता जहां कभी प्रेमचंद के हामिद के संगी साथी सिपाही, मौलवी, चिमटा, मिट्टी के हाथी घोड़े, विभिन्न जीव जंतुओं के माध्यम से बच्चों का मनोरंजन करते थे। लेकिन जैसे जैसे तकनीक में बदलाव आया मशीनें आईं उसके बाद मिट्टी के खिलौनों का कायाकल्प हो गया। वो अब चीनी मिट्टी की चमचमाती सफेद रंगों वाली आवरणों में बच्चों के बीच जगह बनाने लगी। मिट्टी के खिलौनों का रंग रूप बदला। साथ ही खिलौने की मुद्राएं बदलीं। बंदूक, गन, हेलिकाॅप्टर, युद्धपोत, कार, चमकीली विदेशी फूरे बालों वाली गुडि़या बच्चों की गोद में खेलने लगी। एक तो बदलाव यह था दूसरा था हिंसा प्रधान पात्रों के साथ सचल खिलौने जो चाबी से गतिविधियां करती थीं। इसमें बच्चों को खुद से ज्यादा कुछ नहीं करना था। बस चाबी भरो और बंदर ढोल बजाने लगता था। यह वह प्रस्थान बिंदु हैं जहां से भारतीय बाल खिलौनों के बाजार में एक महत्वपूर्ण करवट लेने की आहट सुनाई पड़ती है।
बच्चों के खिलौनों के बाजार का जिक्र करना इसलिए महत्वपूर्ण है, क्योंकि इनके लिए जिस तरह के खिलौने, वीडियों गेम बाजार में छाने लगे उसके प्रति हमने ध्यान नहीं दिया। वे ऐसे गेम थे जो बच्चों में चुपके चुपके हिंसात्मकता, क्रोध, घृणा आदि के भाव पैदा कर रहे थे। लेकिन बड़ों की दुनिया इसके परिणामों से बेखबर थी। बच्चे आक्रामक्ता में जब स्कूल, घर यार दोस्तों में उसी दृश्य की पुनरावृत्ति करने लगे तब हमारे कान खड़े हुए। लेकिन तब भी हमने रक्षात्मक कदम उठाने की बजाए बच्चों को वैसी ही गेम, खेल खिलौने ला कर उनकी जिद्द को पूरा करते रहे।
बच्चों के खेल खिलौने के बाद चलते चलते दृश्य-श्रव्य माध्यमों द्वारा परोसी जा रही सामग्रियों पर नजर डालना अन्यथा न होगा। छः से दस साल के आयु वर्ग के बच्चों से बातचीत में साफतौर पर एक बात निकल कर आई कि टीवी पर गंदी चीजें दिखाई जाती हैं। उनकी दृष्टि में जो गंदी चीजें थीं उस पर गौर करें- हिंसा, मार- काट, ख़ून, हत्या, चोरी करना, किडनैप, प्यार आदि। इनकी सूची में शामिल प्यार को छोड़कर बाकी चीजें तो समझ आईं। लेकिन प्यार को बच्चों ने गंदी चीजों में क्यों शामिल किया? इसपर बातचीत में ही निकल कर उसका जवाब आया। इस पर ध्यान देने की आवश्यकता है कि लड़की को छेड़ना, फूल देना, चिट्ठी देना आदि टीवी से सीखा है जिसके लिए मम्मी-पापा मारते हैं। इसलिए यह गंदी चीज है। इस बातचीत में कालका जी मंदिर के पास रहने वाला संजय, अंजलि और नेहरू प्लेस झुग्गियों में रहने वाली पूजा, प्रशांत, अनिल, विजय सेवालाल, सौरभ आदि बच्चे शामिल थे। यदि समय-समय पर विभिन्न संस्थाओं की ओर से कराए गए रिसर्च परिणामों पर नजर डालें तो आंकड़े बताते हैं कि बच्चों के कोमल मन पर सबसे ज्यादा प्रभाव दृश्य-श्रव्य माध्यम चाहे वह टीवी हो या वीडियो गेम आदि का पड़ता है। बच्चों में चिड़चिड़ापन, हिंसात्मक प्रवृत्ति को भी इसी माध्यम से हवा पानी मिलती है। रिपोर्ट तो यहां तक कहते हैं कि बच्चों ने कितना समय टीवी के सामने जाया किया। हालांकि टीवी के प्रभाव से बच्चे तो बच्चे यहां तक कि बड़े भी अछूते नहीं हैं। टीवी पर प्रसारित होने वाले कार्यक्रमों की कथावस्तु, संवाद, चित्रण आदि पर नजर डालें तो साफ पता चल जाएगा कि इन कार्यक्रमों के जरिए हमारे आम जीवन पर किस तरह का प्रभाव पड़ रहा है। भाषा से लेकर आम बोलचाल, रहन- सहन, बरताव सब प्रभावित होते हैं। कहने की जरूरत नहीं कि रीति-रिवाज़ भी ख़ासे प्रभावित हुए हैं।
अब हम अपने मुख्य चिंता पर पुनः लौटते हैं बाल साहित्य को भी श्रव्य दृश्य माध्यमों ने कहीं न कहीं प्रभावित किया। अव्वल तो स्कूल जाने और लौट कर आने के बाद होमवर्क और थोड़ी सी पढ़ाई के बाद जो समय हाथ में बचा वह टीवी देखने में गुजर जाती हैं। बहुत सीमित बच्चे हैं जो इस तरह की दिनचर्या में बाल-कहानी, बाल-उपन्यास, बाल कविताएं व बच्चों की पत्रिकाओं को पढ़ते हों। यह अलग बात है कि अंग्रेजी भाषा ने अपनी चमत्कारिक छटा में बच्चों को खिंचने में कुछ हद तक सफल रही है। मसलन हैरी पोटर की श्र्ृंखला बद्ध उपन्यास जो सात से आठ सौ पेज से कम नहीं हैं बच्चों ने अभिभावकों को खरीदने पर विवश किया। कई ऐसे बच्चे मिले जिन्होंने दो से तीन दिन के अंदर मोटी किताब खत्म कर दी। यहां लेखक की कौशल एवं प्रस्तुतिकरण की दाद देनी पड़ेगी कि उसने न केवल यूरोप बल्कि एशियन देशों के बच्चों को भी पढ़ने पर विवश किया। और देखते ही देखते इस उपन्यास पर झटपट फिल्म भी आ गई। जो मज़ा पढ़ने में आता है वह अलग बात है। लेकिन पढ़ी हुई घटनाओं को पर्दे पर आवाज़, सचल रूप में देखने का एक अलग आनंद है जो बच्चों ने उठाया। यहां पाठक और पुस्तक के बीच भाषा बाधा नहीं बन पाई। देखते ही देखते इस उपन्यास को कुछ प्रकाशन संस्थानों ने हिंदी में अनुवाद करा कर पाठकों को मुहैया करा रहे हैं।
एक मुख्य सवाल यहां उठता है कि किन बच्चों को कहानियों की आवश्यकता है। किन बच्चों को घरों में कहानियां सुनाई जाती हैं ? किन स्कूलों में बच्चों को कहानी की कक्षा उपलब्ध है? किन स्कूलों में कोई कथा वाचक होता हैं? शायद कोई स्कूल ऐसा न मिले जहां कथा वाचक हो। जबकि बच्चों को इच्छाओं को टटोलें तो पाएंगे कि उन्हें कहानियां बेहद पसंद आती हैं। वो अपने अपने माता- पिता, टीचर से कहानी सुनाने की जि़द करते हैं लेकिन अक्सर उन्हें डांट कर चुप्प करा देते हैं। ज्यादा हुआ तो कोई कहानी अनमने से कहानी किताब उठाई और पढ़ डालते हैं। जबकि कहानी पढ़ी नहीं बल्कि कही जाती है। कहने की कला नहीं आती तो वो बच्चों को नहीं बांध पाएंगे। बच्चों को कहानियां कहीं न कहीं बेहद अंदर तक छूती हैं। जिन्हें वो ताउम्र नहीं भूल पाते। लेकिन जरूरत इस बात की है कि कहानियां संपूर्ण आंगिक मुद्राओं के साथ सुनाई जाए। लेकिन अफ्सोस कि कथा वाचन की कौशलों से अनभिज्ञ अध्यापक/अध्यापिका या अभिभावक आनन-फानन में कहानियां पढ़कर सुना देते हैं। यहीं पर कहानी की हत्या हो जाती है। 
 

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