Sunday, April 1, 2012

समीक्षक की नज़र में

समीक्षक की नज़र में हर किताब टेक्स्ट किसी तिलस्म से कम नहीं होती. हर पेज हर शब्द हर विचार नए आयाम देता है. यदि समीक्षक किसी किताब को पूर्वाग्रह से पड़ता है तो वो किताब के साथ न्याय नहीं कर सकता. समीक्षा को तथास्त हो कर किताब की समीक्षा करनी चाहिए. किताब की भाषा, विचार, प्रस्तुति, शैली आदि की शाताएं पाठकों के सामने रखना चाहिए.
पाठक आखिर किताब क्यों पढ़े? पाठक किताब से क्या ले सकता है? आदि सवालों के जवाब तलाश कर समीक्षा में दिखने की कोशिश करनी चाहिए. इक होती है समीक्षा, आलोचना, समालोचना, पुस्तक परीचे आदि. इन सब में अंतर होता है. आलोचना, समालोचना जो की पुस्तक की गहराई से जाच पड़ताल करी है. जिसको किसी पत्रिका में जगह मिलती है. लेकिन पुस्तक को रोज दिन प्रकाशित होने वाली अखबारों में पुस्तक परीचे को जगह मिलती है.
पुस्तक परीचे में समीक्षा किताब की इक चलते चलते परिचय लिखता है. वहीँ समीक्षा जो पत्रिका के लिए लिखी जाती है वो आलोचना या समालोचना कह सकते हैं.
पाठक के लिए जरुरी यह है की वो पड़ने के लिए किस किताब का चुना करे. आज इस हकीकत से मुह नहीं मोड़ सकते की टाइम वो भी पड़ने के लिए किसी के पास नहीं है. यदि कोई टाइम निकलाता है तो उस टाइम का सही युप्योग हो सके. इस लिए वह समीक्षा पद कर किताब का चयन कर सकता है.
इस लिहाज से समीक्षक को गंभीर और संतुलित हो कर किताब की समीक्षक की भूमिका निभानी चाहिए                          

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