Monday, January 2, 2012

खबर की मंदी

खबर की मंदी हाँ सही सुना. मंदी ने न केवल अर्थ तंत्र को झकझोर कर रख दिया बल्कि मीडिया को भी नहीं बक्शा. कई नामी गिरामी पत्रकार बंधू बांधुनी पत्रकारिता में जीवन खपाने के बाद भी मंदी में बाहर अपने लिए रोटी तलाशते नज़र आये. बल्कि आ भी रहे हैं. उस पर बलिहारी यह की उन बह्दुयों के जाने की खबर कोई कहीं छापने को राजी नहीं. जिनने मंदी पर खूब स्तोटी अपने हाथों से पेज पर लगाए मगर उस खबर की तीस तब महसूस हुई जब वो इक दिन खुद बाहर हो गए.
मंदी के नाम पर अखबार घराने खूब जम कर खेल फरुखाबादी खेले. पेज कम किये, स्टाफ को नोऊ काम कहा, और भी खबरे रहीं मगर उनको पूछने वाला आज कोई नहीं. २००८ की मंदी ने बहुतों की उम्मीदों पर पानी ही नहीं फेरे बल्कि उनको मीडिया से मोह भंग किया. कोई पढाने चले गए. कुछ ने अपने पुराने काम पर लौट आये.
बड़े बड़े संपादक बंधुयों को देखा वो साहित्य सृजन, शोध करने कराने में जुट गए. वाही लोग कहीं ना काहीं जौर्नालिस्म के संसथान में हेड बन गए. नए पत्रकारों को मीडिया के  गुर सिखाने लगे.
समय रहते भूल सुधार ली वरना...                  

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