Friday, October 26, 2012


 हाशिए पर बिलबिलाते और बाल अधिकार से वंचित बच्चे
-कौशलेंद्र प्रपन्न
सड़क पर एक बच्चा नाक पोछते हुए सूखी नजरों से बड़ों को बड़ी उम्मींद से देखता है। देखता है कि उसे कुछ पैसे दे दें या रोटी खिला दें। ऐसे में उस बच्चे को दुत्कार मिलती है। उपेक्षा मिलता है। चोर-लफाड़े, और न जाने किस किस तरह के विशेषणों से नवाजे जाते हैं। ये वो बच्चे हैं जिनका घर यदि घर की संज्ञा दी जा सकती है तो, फ्लाई ओवर, रेलवे स्टेशन, बस अड़्डे, सड़क के किनारे, पार्क आदि हुआ करता है। ऐसे लाखों बच्चे देश भर में कहीं भी कभी भी चलते-फिरते नजर आते हैं। हम वयस्क जो उन्हें हिकारत की नजर से देखते हैं दरअसल यह हमारे विकास के गाल पर तमाचा से कम नहीं है। इन्हीं बच्चों में से खासकर लड़कियों को कहां तक शोषण का शिकार होना पड़ता है इसका अंदाजा ही लगाया जा सकता है। लड़कियां तो लड़कियां लड़के भी शारीरिक और मानसिक शोषण के शिकार होते हैं। लेकिन अफसोस की बात है कि इनकी फरियाद कहीं नहीं सुनी जाती। ऐसे ही बच्चे रोज तकरीबन 100 की तदाद में हमारे बीच से लापता हो जाते हैं लेकिन उन्हें तलाशने की पुरजोर कोशिश तक नहीं होती। एक अनुमान के अनुसार देश से 55,000 बच्चे गायब हो जाते हैं लेकिन सरकार को मामूल तक नहीं पड़ता कि आखिर इतने सारे बच्चे कहां गए। सरकार की नींद तब खुलती है जब न्यायपालिका आंख में अंगूली डाल कहती है, देखो इतने सारे बच्चे गायब है पता करो कहां गए? किस हालत में हैं। तब सरकार की नींद जबरन खुलती है। गायब होने वाले बच्चों के पारिवारिक पृष्ठभूमि भी खासे अहम भूमिका निभाता है उन्हें पता लगाने में। गुम होने वाले बच्चे यदि गरीब तबके के हुए तो संभव है ताउम्र उनके मां-बाप, अभिभावक बच्चे के लिए तड़पते मर जाएं। लेकिन वहीं अमीर घर के बच्चे हुए तो उस बच्चे को ढूंढ़ निकालने के लिए पूरी प्रशासनिक तंत्र लगा दिया जाता है। लोकतंत्र के चार स्तम्भ माने गए हैं। एक न्यायपालिका और दूसरा जिसे चैथा स्तम्भ भी कहते हैं, मीडिया को शामिल किया जाता है। न्यायपालिका समाज में घटने वाली ऐसी घटनाओं जिससे आम जनता की सांवैधिनिक अधिकारांे का हनन होता हो तो वह खुद संज्ञान लेते हुए कदम उठा सकती है। मीडिया भी समाज के अंदर की हलचलों को करवटों को अपनी नजर से देखता पकड़ता और समाज के व्यापक फलक पर परोसता है ताकि नीति नियंताओं, न्यायपालिका, कार्यपालिका आदि उस मुद्दे को गंभीरता से लें और समुचित कार्यवाई करें।हाल सुप्रीम कोर्ट ने एक जनहित याचिका पर सुनवाई करते हुए केंद्र एवं राज्य सरकारों को आदेश दिया है कि राज्यों से गायब होने वाले बच्चों के बारे में पता करें एवं कोर्ट को इस बाबत सुचित करें। गौरतलब है कि कोर्ट ने देश से 55,000 हजार बच्चों के गायब होने के मामले पर संज्ञान लेते हुए केंद्र एवं राज्य दोनों ही सरकारों को आदेश जारी किया।
बच्चों का हमारे समाज,देश से इतनी बड़ी संख्या में लापता होना एक गंभीर मामला है। बच्चे रातों रात शहर के भूगोल और सरकारी एवं प्रशासनिक तंत्र के नेटवर्क से गायब हो जाते हैं। मगर गुम हुए बच्चों की खबर कहीं नहीं लगती। गुम हुए बच्चों में से कितने बच्चों को खोज लिया गया इसका भी कोई ठोस जानकारी न के बराबर उपलब्ध है। दिल्ली में बीते सात महिनों में तकरीबन 935 बच्चे शहर से गायब हो गए। हमारे नवनिहाल हमारी चिंता के विषय न बनें तो यह एक गंभीर मसला है। गौरतलब है  कि काॅमन वेल्थ गेम से पहले दिल्ली से 2000 से भी ज्यादा बच्चे गायब हुए थे। हमारे आप-पास से इतनी संख्या में बच्चे गायब होकर आखिर कहां जाते हैं? यदि 2006 में गायब होने वाले लड़के एवं लड़कियों की संख्या की बात करें तो 4118 लड़के गुम हुए थे जिनमें से 3446 बच्चों को खोज लिया गया लेकिन सवाल यह उठता है कि 672 बच्चे आखिर कहां हैं? लड़कियों की संख्या पर नजर डालें तो 2910 लड़कियां गुम हुई थीं जिनमें से 2196 लड़कियों को ढूंढ लिया गया, लेकिन फिर सवाल यहां पैदा होता है कि 714 लड़कियों के साथ क्या हुआ। क्या उन्हें देह व्यापार में धकेल दिया गया? उनकी हत्या कर दी गई? या फिर बाल मजदूरी में डाल दिया गया? क्या हुआ उन न मिले बच्चों के साथ। यह सवाल आज भी मुंह खोलकर खड़ा है। गौरतलब है कि हमारे देश में हर साल तकरीबन 44,475 बच्चे हर साल लापता होते हैं। जिनमें से 11,000 बच्चों के बारे में कुछ भी जानकारी नहीं मिल पाती। वहीं दूसरी ओर गृहमंत्रालय ने स्वीकार किया कि 2008-10 के बीच देश के 392 जिलों से 1,17000 बच्चे गायब हुए थे। यदि गायब होने वाले बच्चों की लिंग की दृष्टि से देखें तो लड़कियों की संख्या ज्यादा है। यहां एक बात स्पष्ट है कि लड़कियों की गुमशुदगी के पीछे कई निहितार्थ होते हैं।
देश के नीति-निर्माताओं एवं नीति-नियंताओं ने बच्चों के अधिकार को लेकर अपनी संजीदगी दिखाई थी जिसका परिणाम यह हुआ कि 1974 में राष्टीय बाल नीति निर्माण करने की पहलकदमी हुई। लेकिन यह कदम सुस्त पड़कर रूक गया। महिला एवं बाल विकास मंत्रालय एक बार फिर से कमर कसकर राष्टीय बाल नीति बनाने के लिए तैयार है। गौरतलब है कि 22 अगस्त 1974 को सरकार को लगा था कि देश को एक अलग और मुकम्मल बाल नीति की आवश्यकता है। लेकिन अगर, मगर, किंतु व तात्कालिक पचोखम में उलझ कर यह प्राथमिकता ठंढ़े बस्ते में डाल दिया गया था। अगस्त में  महिला एवं बाल कल्याण मंत्रालय ने ज्ञापन दिया था कि इस नीति निर्माण में यदि आम जनता को कोई सुझाव देना है तो वो फलां फलां ई मेल एवं डाक पते पर भेज सकते हैं। पहली नजर में यह लोकतांत्रित प्रक्रिया दिखाई देती है। लेकिन दरअसल ‘होईहैं वही जो राम रचि रखा’ यानी सरकार जिस मनसा के साथ इस नीति को लेकर आ रही है परिणाम इस पर काफी निर्भर करता है। यदि मंत्रालय के वेब साईट पर उपलब्ध डाफ्ट पेपर से गुजरें तो पाएंगे कि इसमें जवाबदेही पूरी तरह से राज्य सरकार के मत्थे थोप कर केंद्र सरकार अलग खड़ी नजर आती है। इस पूरे प्रपत्र के अवलोकन के बाद यह साफ हो जाता है कि इस नीति में यह प्रावधान का कहीं एक पंक्ति में भी जिक्र नहीं है कि यदि इस नीति का उल्लंघन किसी स्तर पर हो रहा है तो ऐसे में किस के प्रति कार्यवाई होगी। वह कार्यवाई करने का अधिकार किसका होगा। क्योंकि इस नीति में कहीं भी इस बात की चर्चा नहीं है कि किस विभाग, अधिकारी को न्यायिक अधिकार प्राप्त होगा।
इस डाफ्ट के प्रेम्बल्स में वही सारे वायदे,घोषणाएं एवं वचनों को शामिल किए गए हैं जो 1989 में संयुक्त राष्ट बाल अधिकार की सार्वभौमिक घोषणा में स्वीकार की गई थी। 1989 इस यूएनसीआरसी की घोषणा के अनुसार बच्चों को निम्न चार अधिकार दिए गए हैं- जीवन का अधिकार, सुरक्षा का अधिकार, विकास का अधिकार और सहभागिता का अधिकार। आज जब बाल नीति निर्माण की प्रक्रिया शुरू हुई है तो उन्हीं वचनों को दुहराया गया है। इस प्रपत्र पर नजर दौड़ाएं तो पाएंगे कि वो तमाम आदर्शपरक परिस्थितियों, अधिकारों, व्यवहारों को दुहराया गया है जिसकी ओर हमारा संविधान नजर खींचता है। मसलन बच्चों को बिना किसी भेदभाव के गुणवत्तापूर्ण प्राथमिक शिक्षा, सुरक्षा, भोजन, व्यक्तित्व विकास, संवेदनात्मक,संवेगात्मक,मानसिक विकास के माहौल मुहैया कराया जाएगा। इसमें राज्य सरकार किसी भी बच्चे/बच्चियों को वंचित नहीं रखेगा। राज्य सरकार यह भी सुनिश्चित करेगी कि उनके क्षेत्र में किसी भी बच्चे के साथ किसी भी किस्म के भेदभाव ;जाति,वर्ग,वर्ण,धर्म,संप्रदाय,भाषा-बोली,संस्कृति आदि के आधार परद्ध नहीं हो रहा है। सभी बच्चों को शिक्षा, विकास, सुरक्षा और स्वास्थ्य की बुनियादी सुविधाएं मिलें इसके लिए राज्य सरकार का पूरी तरह से जिम्मेदार ठकराया गया है।
भारत में बच्चों को लेकर सरकार पहले भी संजीदा हुई है जिसके पदचाप हमें दिखाई देते हैं लेकिन वे महज पदचाप ही बन कर रह गए। यूं तो बच्चों के देह व्यापार रोकने के लिए बने कानून 1956, बाल विवाह निषेध कानून 1929, बाल मजदूरी निषेध कानून 1986, जे.जे. एक्ट 2000, 86 वां संविधान संशोधन 2002 जो हर बच्चे को 6 से 14 आयु वर्ग के बच्चों को मुफ्त एवं अनिवार्य शिक्षा पाने का हक पर बल देता है। 2009 शिक्षा का अधिकार कानून बना और 1 अप्रैल 2010 को लागू तो हो गया लेकिन अभी भी उसके अपेक्षित परिणाम आने बाकी हैं। इतने तमाम सांवैधानिक अधिकारों के बावजूद बच्चे एवं बच्चियों के साथ जिस तरह की घृणित व्यवहार की घटनाएं देखने- सुनने में आती हैं वह शर्मनाक बात है। विश्व के अधिसंख्य बच्चे उपेक्षा के शिकार होते रहे हैं। इससे कोई इंकार नहीं कर सकता कि युद्ध,विस्थापन,पलायन आदि में बच्चे और महिलाएं सबसे अधिक मूल्य चुकाते हैं। बच्चे वो ईकाई हैं जिनपर समस्त देश यह कहते, घोषित करते थकता नहीं कि बच्चे देश के भविष्य हैं। बच्चों के कंधे पर देश एवं समाज का भविष्य आधारित है। अब इस घोषणा की रोशनी में भारत में बच्चों को लेकर उठाए गए कदमांे को परखने की आवश्यकता है।
यह दुर्भाग्य ही कहना होगा कि 2000 तक बच्चों के अधिकार, सुरक्षा को लेकर देश में कोई स्वतंत्र आयोग तक नहीं था। आखिर बच्चों की बात, पीड़ा को कहां उठाया जाता। अंततः सरकार ने राष्टीय बाल आयोग का गठन किया। 2000 आते आते हमारे माननीय सांसदों, नीति निर्माताओं को यह भी ख्याल आया बल्कि कहना चाहिए सरकार को कई स्तरों से इस ओर ध्यान खींचने की कोशिश की गई कि साहब बच्चों के अधिकारों, उनकी समस्याओं,उनके साथ होने वाले अमानीय घटनाओं को सुनने-निवारण करने के लिए संविधान में मौलिक अधिकार के बरक्स एक नई नीति, कानून की आवश्यकता है। तब दोनों ही सदनों ने 2000 में जुबिनाइल जस्टिस एक्ट 2000 ;जे.जे.एक्ट 2000द्ध बनाया गया। जे.जे. एक्ट 2000 विस्तार से बच्चों के अधिकारों और उनके साथ सरकार और प्रशासन के रूख को आईना दिखाता है। इस एक्ट में कहा गया कि यदि पुलिस किसी नाबालिक बच्चे को किसी जुर्म में गिरफ्तार करने जाएगी तो क्या क्या एहतियात बरतने होंगे। एक्ट कहता है कि पुलिस अपनी वर्दी में नहीं जाएगी। बच्चों के साथ पुलिस थाने में पूछताछ नहीं करेगी। सााि ही 24 घंटे के अंदर पुलिस को तथाकथित अपराधी बच्चे को मजिस्टेट के सामने पेश करना होगा आदि। यह अलग विमर्श का विषय है कि वास्तव में पुलिस का रवैया बच्चों के प्रति किस प्रकार का होता है। यदि याद करें तो मध्य प्रदेश में मई के महीने में थाने में ही बच्चे का कान उखाड़ लिया गया था। वहीं अन्य राज्यों में भी बच्चों के साथ पुलिस किस कदर बरताव करती है यह किसी से छूपा नहीं है। इन्हीं बर्तावों को देखते हुए बच्चों को मानवाधिकार के हनन को रोकने के लिए राष्टीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग ;एनसीपीसीआरद्धका गठन किया गया।
एक ओर देश के संविधान की धारा 14, 15, 21, 21 ए, 23, 24 और 45 खासकर बच्चों की सुरक्षा, भेदभाव रहित, समान अवसर, गुणवत्तापूर्ण शिक्षा पाने और समानता का हक तो देती है लेकिन व्यवहारिकता में देखने में नहीं आता। संविधान के प्रावधानों की रोशनी में देखें तो इस बाल नीति के तानाबाना में एक समतामूलक,समान अवसर, बिना भेदभाव के सभी वर्ग के बच्चों की सुरक्षा,शिक्षा, स्वास्थ्य आदि की वचनबद्धता दुहराई गई है। अब देखना यह है कि क्या इस नीति से वास्तव में बच्चों की जिंदगी में बदलाव आ पाएंगे।
गौरतलब है कि बच्चे वो दीर्घ कालीन पूंजी निवेश हैं जो 15- 20 साल बाद मैच्योर होते हैं। लेकिन हम इस पूंजी को यूं ही गंवाते रहते हैं। उनकी सुरक्षा, स्वास्थ्य, शिक्षा तक मुहैया नहीं कराते। एजूकेशन मिलेनियम डेवलप्मेंट गोल ‘ एमडीजी’ का लक्ष्य एक और दो हर बच्चे को ‘0 से 18 साल’ शिक्षा, स्वास्थ्य एवं सुरक्षा के साथ ही विकास एवं सहभागिता की बात करता है। न केवल बात करता है बल्कि दुनिया के तमाम विकसित एवं विकासशील देशों ने लक्ष्य बनाया था कि 2000 एवं 2015 तक यह लक्ष्य हासिल कर लेंगे। किन्तु अफसोस के साथ कहना पड़ता है कि अभी भी यूनेस्को की एक रिपोर्ट के अनुसार दो देशों के अन्तर्कलह एवं अपाताकाल की स्थिति में 20 मिलियन बच्चे अपने घर से बेघर हो गए। वहीं हर साल 150 मिलियन लड़कियां एवं 73 मिलियन लड़के दुनिया भर में शारीरिक शोषण एवं बलात्कार के शिकार होते हैं। स्थिति यहीं नहीं थमती बल्कि बच्चों पर होने वाले अत्याचार व कहें शोषण एवं दुव्र्यवहार और भी आगे जाते हैं। वार्षिक आंकड़ों पर नजर डालें तो पाते हैं कि 500 मिलियन एवं 1.5 बिलियन बच्चे किसी न किसी तरह के हिंसा के शिकार होते हैं। घरेलू हिंसा की बात करें तो हरेक साल 275 मिलियन बच्चे इसके चमेट में आते हैं। न्यायालयों सरकारी नीतियों को धत्ता बताते हुए हमने खतरनाक किस्म के माने जाने वाले कमों में भी 115 मिलियन बच्चों को झोंका है। इतने व्यापक स्तर पर जब बच्चों के साथ भेदभाव एवं अमानवीय बरताव हो रहे हों तो ऐसी स्थिति में यह मुद्दा खासे गंभीर एवं विचारणीय बन जाता है। 

लेखक परिचय-
;नेशनल कैम्पेन काडिनेटर हैद्ध
नेशनल कोइलीएशन फोर एजूकेशन ‘एनसीई’

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