Friday, January 6, 2012

यूँ ही इकदा

कई दफा हम कहीं जाना नहीं चाहते लेकिन घर में बैठ कर मन भी नहीं लगता. यैसे में क्या करते हैं हम? कुछ पुरानी यादों की गठरी खोल कर झाड पोच करने लगते हैं. उन्हीं में से चाँद , धुल भरी पगडण्डी, सर्दी की शाम, समंदर की पचाद खाती लहरें सब के सब याद आने लगते हैं. उनमे से भी हम सुखद, ताज़ा यादों को गोद में ले कर सहलाने लगते हैं. उन्हीं पुराणी यादों में कुछ देर सुस्ता कर वापस आने का मन बनाते हैं. लेकिन इतनी आसानी से पुराणी यादें कहाँ पीछा चूद्तीं हैं.
बरबस साथ द्रविंग रूम में आ धमकती हैं. फिर देखिये क्या ही मंजर होता है. कल की यादें मुह बाए कड़ी अपनी और बुलाती है वहीँ वर्त्तमान ताकीद करता है खबरदार जो पीछे मुड़े ह्म्म्म. हम बेचारे अपना मुह लिए बैठ जाते हैं .सर्दी में अजान बोहोत मनमोहक लगता है. वो भी दोपहर वाली. दूर से गुजरती ट्रेन की आवाज़ और इकबारगी लम्बी ट्रेन फिसलती हवी आखों से ओझल हो जाती है. उन ट्रेनों में बैठे लोग हर किसी की आखों में किसी में मिलने, बतियाने, की चाह, किसी से बिछुड़े पल की ताज़ी आह सुबकती दिखाई देती है.
ट्रेन भी मजेदार होती है. कईयों की आखों में आसूं उपादा कर सिटी बजाती अपनी धुन में ट्रैक पर भागती रहती है. हम भी तो उसी की मानिंद भाग ही रहे हैं. पर कई बार पता नहीं चल पता की उतरना किस स्टेशन पर है. अनजाने में गलत जगह उतर जाते हैं.                       

No comments:

शिक्षकीय दुनिया की कहानी के पात्र

कौशलेंद्र प्रपन्न ‘‘ इक्कीस साल के बाद पहली बार किसी कार्यशाला में बैठा हूं। बहुत अच्छा लग रहा है। वरना तो जी ...