Friday, December 7, 2018

भाषायी मार



कौशलेंद्र प्रपन्न
कई तरह के मार हम पर पड़ते हैंं। प्राकृतिक, अप्राकृतिक जिसे हम कृत्रिम भी कह सकते हैं। कुछ मार हम खुद पैदा करते हैं और कुछ दूसरों से थोपी जाती हैं। दूसरे शब्दों में कहें तो इन मारों से हम बचें कैसे? क्या ऐसी कोशिश करें जिससे कि हम इन मारों के काट निकाल सकें।
भाषायी मार भी उक्त मारों में शामिल कर सकते हैं। भाषायी मार से सीधा का मायने यह है कि जो हमारी अर्जित भाषा है उसकी कमाई पूरी जिंदगी खाया करते हैं। यह भाषायी कमाई हमें मेहनत कर के कमाई पड़ती है। हमेशा प्रयास और मेहनत से इसमें इजाफा करना होता है। यदि इन भाषायी संपदा को बढ़ाते नही ंतो हम कहीं न कहीं पिछड़ते चले जाते हैं
हमारी मातृभाषा और प्रथम भाषा के साथ रागात्मक संबंध कई बार मार से बचने और ख्ुद को संभालने में मुश्किलें पैदा करती हैं। इसे इस तरह भी समझ सकते हैं कि भाषा हमें न केवल मांजती है बल्कि हमें बाजार के अनुसार भी तैयार करने में बड़ी भूमिका निभाती है। जो भाषा बाजार में रोजगार और स्वविकास में मददगार साबित होती है उस भाषा को मोलभाव काफी महंगी होती हैं।
भारतीय भाषाएं और अंग्रेजी के बीच हमेशा ही एक तनाव की स्थिति रही है। बनती और बनाई भी जाती है। भाषायी रागात्मक संबंधों की चर्चा उक्त की गई, उसका मायने यह है कि हिन्दी मेरी मातृभाषा है और हिन्दी ही ताउम्र काम करूंगा और हिन्दी को प्रोत्साहित करने में पूरी जिंदगी झोंक दूंगा। लेकिन हम एक बड़े फल्सफे और हक़ीकत से मुंह मोड़ रहे होते हैं।
भाषायी मार छात्रों, प्रोफेशनल्स और जीवन पर भारी पड़ने लगता है। यदि अंग्रेजी उतनी नहीं आती तो प्रोफेशन पर असर तो पड़ता ही है साथ निजी जिंदगी में भी उसका मलाल सालता है। काश अंग्रेजी पर ध्यान दिया होता तो मेरी बाजार गरम होती। मेरी पहुंच और प्रतिष्ठा भी ज्यादा ही होता। लेकिन कई बार दृढ निर्णय और निश्चिय हमें भाषायर मार से बचा सकता है। हमारी हिन्दी व आंचलिक भाषाएं कुछ दूर तक ही हमारा साथ निभा पाती हैं। एक सीमा और पद के बाद हमें अंग्रेजी अपनानी पड़ती है।

शिक्षकीय दुनिया की कहानी के पात्र

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