Tuesday, December 11, 2018

पुनर्मूषिको भव



कौशलेंद्र प्रपन्न
कहानी पुरानी है। बहुत पुरानी। इस कहानी को हमने बचपन में ज़रूर पढ़ी व सुनी होगी। शायद पंचतंत्र की है या कथासरित सागर से ली गई होगी। संक्षेप में समझें कि ऋषि तपस्या में लीन थे। एक चूहा परेशान था। ऋषि जी की आंखों खुली और उस चूहे से पूरा कथा जानने के बाद कहा ‘‘ तुम्हें शेर बना देते हैं। और तब से चूहा शेर का रूपधारण कर लिया।
उसकी प्रकृति अपने स्वरूप के अनुसार होनी थी। हिंसक। सो एक दिन उस शेर में तब्दील चूहे ने सोचा। शायद ज़्यादा ही सोच लिया। अपना भविष्य सुरक्षित करने के लिए योजना बनाई की क्यों न इस ऋषि को ही खत्म कर दूं। क्योंकि इसकी वजह से आज मैं शेर हूं। लेकिन...
.....और उसने ऋषि पर ही धावा बोल दिया। होना क्या था? जो आपको शेर बना सकता है। वही आपको चूहे में तब्दील करने का मंत्र-यंत्र भी जानता है। और कहानी का पटाक्षेप यूं हुआ कि ऋषि ने उसे पुनः चूहा बना दिया।
इस कहानी के कई स्तर और कई पेंच हैं। बल्कि इस कहानी की गांठों को खोलें तो पाएंगे कि हमारी जिं़दगी में भी कई ऋषि मिला करते हैं जो हमारी औकात और छवि, व्यक्तित्व को नया आयाम दिया करते हैं। अब यह हम पर निर्भर करता है कि क्या हम उसे अपनी काबिलीयत के आधार बरकरार रख पाते हैं या वर्तमान पद को भी खो देते हैं। पहले वाला स्वरूप तो अपने हाथ से गया ही वर्तमान की पहचान भी खतरे में आ जाती है।
यदि हमारे अंदर दक्षता और कौशल है। योग्यता और पात्रता है तो हम इस शेर के बिंब को जी पाते हैं। हमें अपने पुराने ऋषि के वरदान और श्राप के भय से हमेशा झुक कर नहीं रहना पड़ता। बल्कि नर्ठ भूमिकाओं और चुनौतियों का सामना डट कर करते हैं।
थ्कतनी ही अजीब बात है कि जब आप एक ही संस्थान में प्रमोट होकर नई पोस्ट हासिल किया करते हैं और कुछ ही वक़्त के बाद आपको पहली भूमिका में धकेला जाए। या फिर ऐसी परिस्थितियां पैदा कर दी जाएं कि आपको अपनी पहली भूमिका में लौटना पड़े तो ऐसे में क्या महसूस करते हैं? आपके महसूसने और अनुभव को कोई ख़ास तवज्जो नहीं दिया जाता बल्कि मैनेजमेंट आपको येन केन प्रकारेण कोई न कोई कारण गिना कर जतला देती है कि आप उसके योग्य ही नहीं थे। आप तो अकादमिक कार्यों के लिए बने हैं। आप चूहा ही रहें। चूहेपन का आनंद लीजिए। आपको कुछ देर स्वाद क्या लग गया आप तो बौरा गए।
चूहे की गल़ती क्या थी? क्यों वह पुनः चूहा बन गया? सोचकर लगता है। हर किसी को नए रूप, पद, रूतबा खूब भाया करता है। जब उससे नई भूमिका छीन ली जाती है तब अप्रिय लगना स्वभाविक है। लेकिन आत्मग्लानि और अपराधबोध से भर जाना उसके लिए आगे की लड़ाई और संघर्ष को बढ़ा देता है। पहला आत्मसंघर्ष उसका स्वयं से होता है कि क्या मैं सचमुच इस लायक नहीं था? क्या हममें वह दक्षता ही नहीं थी जिसकी उम्मीद की जा रही थी? जो अक्षमता गिनाई गई क्या वास्तव में इसमें कमतर हूं आदि आदि। और निराश होकर आगे प्रयास करना छोड़ देगा। वहीं दूसरी स्थिति यह भी हो सकती है कि वह इसे सकारात्मक रूप से ले कि अच्छा कियी कमियां बता दीं। आगे से ऐसी गलती या कमियों को दूर करूंगा।
कंपनियां और दुकानें बहुत सी हैं। यदि हमारे अंदर दक्षता और काम के प्रति ललक और रूझान है कि कीमत देने वाले भी इसी बाजार में हैं। बस ज़रूरत है अपने आप को कैसे बेचते हैं। बिकने के लिए तैयार रहें, दक्ष हों तो खरीदने वाले भी बैठें हैं।

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