Thursday, December 6, 2018

अपेक्षा, उम्मींद, आशा...



कौशलेंद्र प्रपन्न

तीन वर्णों का शब्द है। इसे आशा, उम्मींद आदि नामें से भी पहचानते हैं। बुद्ध ने कभी बहुत खूब कहा था ‘‘ आशा अपेक्षा ही दुख का कारण होता है’’
हम पता नहीं किससे क्या और कितनी उम्मींद कर लेते हैं। और जब पूरे नहीं होते तो दुखी हुआ करते हैं। इस उपजे हुए दुख के लिए शायद वह व्यक्ति दोषी नहीं बल्कि हम हैं जिसने बिना जांचे परखे कि वह अधिकारी है या नहीं? सक्षम है या नहीं? आदि। और हमने उससे ग़लत अपेक्षा कर ली।
हमारे अधिकारी भी ऐसी हो सकते हैं। फर्ज़ कीजिए कोई हिन्दी और संस्कृत का जानकार है लेकिन उससे उम्मींद कर रहे हैं कि वह बेहतरीन अंग्रेजी लिख,बोल पाए। यदि वह व्यक्ति आपकी अपेक्षा पर ख़रा नहीं उतरा तो इसमें उतना दोष उसका नहीं है जिससे आपने उम्मींद की बल्कि आप ज्यादा दोषी हैं जो आपने सुपात्र से अपनी अपेक्षा नहीं की। यहां स्थिति स्पष्ट है वह व्यक्ति अपनी पूरी क्षमता और ताकत लगाकर आपकी अपेक्षाओं पर ख़रा उतरने का प्रयास करेगा। लेकिन आपकी कसौटी पर पूरे न उतर पाएं।
किन्तु जिस पात्र से अपेक्षा की गई यदि वह सफल उनकी नजरों पर नहीं भी हो पाता है तो कोई वजह नहीं कि वह अपनी गति, प्रयास और कोशिश छोड़ दे। जो अपने लक्ष्य को ध्यान में रखेंगे वो अपने रास्ते से भटक सकते। जो रचेगा वो कैसे बचेगा, जो बचेगा वो कैसे रचेगा? श्रीकांत वर्मा की पंक्ति उन्हें ताकत दे सकती है। यदि आप कोशिश करते हैं तो वह आज नहीं कल पहचानी भी जाएगी।

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