Monday, December 17, 2018

पांव में चप्पल नहीं




कौशलेंद्र प्रपन्न
उसके पांव में चप्पल नहीं थे। जमीन जितनी सर्द थी कि नंगे पांव कुछ देर खड़ा रहना मुश्किल है। लेकिन उसके पांव में न चप्पल और न ही जुराब। कुछ भी नहीं। खाली और नंगे पांव वो बरतन धो रही थी। एक अकेली साड़ी में लिपटी। शॉल था तो बदन पर लेकिन वह भी फैशन वाले लग रहे थे। उस शॉल से सर्दी रूकती हो इसका अनुमान लगाना कठिन है।
लाख कहने पर कि चप्पल पहन लो उसके पांव में चप्पल नहीं आए। लेकिन दुबारा बोलने पर उसने कहा, ‘‘चप्पल तो नीचे है। कोई घर में हमें चप्पल पहन कर नहीं घूसने देता। इसलिए चप्पल नीचे खोल कर आती हूं।’’
यह सुनकर सोच में पड़ा रहा कि घर की रसोई सौंपने, खाना बनवाने में हम पीछे नहीं रहते। घर का सब काम किया करती हैं। ऐसी रानियां, पूजा, बबीता, आंचल आदि आदि। लेकिन घर में चप्पल पहन कर आने में हमारी पवित्रता कहीं गंदली होने लगती है। है न अज़ीब सा दो स्तरीय बरताव। लेकिन अमूमन घर घर में ऐसे ही व्यवहार हुआ करते हैं।
इन्हें आदत है किसी भी घर में जाओ तो अपना चप्पल खोलकर दरवाज़े के अंदर आना है। मैंने अपनी चप्पल दी कि इन्हें पहनों और फिर बरतन बासन साफ करो। जमीन साफ रखना, डस्टींग आदि करना एक उद्देश्य है।
हमसब की आदत होती है कि इन महिलाओं से यदि मुरौअत से पेश आए तो सिर पर नाचने लगती हैं। काफी हद तक होता भी है। यदि ढील दे दो तो छुट्टियों की लड़ियां लग जाती हैं। आपकी रसोई, घर सब के सब उसके न होने की पहचान देते हैं। हम वैकल्पिक बरतन से काम चलाने लगते हैं। वे तो सोचती है कुछ दिन आराम मिला। लेकिन जैसे ही बरतनों का ढेर देखती है वैसे ही भुनभुनाने लगती है। क्या फायदा हुआ छुट्टी करने का। जब इतना बरतन धोना ही था।
आज की हम सब की जिंदगी का अहम हिस्सा बन चुकी हैं ये रानियां, पूजा, रूबी आदि। इनके बगैर कई बार लगता है हम कितने अपंग हो चुके हैं। यदि दो दिन ये न आएं तो रसोई तो रसोई हमें अपने जुराब, जूते, बनियान आदि का भी पता नहीं होता। क्यों न ये भी इतराएं? इन्हें इतराने और भाव खाने का भी पूरा हक़ है। क्योंकि हमारे अधिकांश काम यही तो निपटाया करती हैं। हम घर के साथ अब बिना रानियों के कल्पना भी नहीं कर सकते।
शायद यही वज़ह है कि हर बड़ी बड़ी इमारतों और कॉलोनी, सोसायटी आदि के आस-पास ही इनके भी ज़िंदगी चक्कर काटने लगती है। छोटी छोटी दुकानें और कुछ काम करते इनके पतियों को विश्वास होता है कि उनकी बीवी उनके से ज़्यादा कमा रही हैं। शाम होते घर भी लौट जाया करती हैं।
कभी मौका मिले तो अपने घर के आस-पास के पार्क में रविवार या किसी दिन ग्यारह बजे के बाद देख लीजिए। कमाल का मंज़र होता है। सिर से जूं निकालतीं आपकी रानी, पड़ोस की पूजा से सुबह से कल रात तक की तमाम कहानियां बिनते बांटते नज़र आएंगी। उसकी पूजा, इनकी रानी, या पांच मंजिले एक मकान में लगी रूबी सब अपने अपने काम की प्रकृति और दुख या मजे बांटा करती हैं। काश! हमारे पास कोई रिकॉडिंग होती तो हम जान पाते कि किसी चटनी, किसनी दाल, किसकी रोटी कहां कब पका करती हैं।
कई दफ़ा आपकी रानी मेरी पूजा को बिगाडने का काम भी किया करती है। मेरी भाभी ने तो साड़ी कूकर आदि दिया। तुम्हारी भाभी ने क्या दिया? और अब वो बरतन धोते धोते धीरे से सरका देगी ‘‘ इस बार साड़ी लूंगी और दीवाली पर कूकर देना। हर साल लड्डू दे देती हो भाभी।’’
हमारी लाइफ लाइन बन चुकी रानियों, राजकुमारियों को इंसान के तौर पर देखना और स्वीकारना होगा। यदि साल में एक बार पांच सौ हजार रुपए का कूकर मांग भी बैठी तो देने में कोई हर्ज़ नहीं। ज़रा फर्ज़ कीजिए तीन दिन यदि वो नहीं आती और आप बच्चे को स्कूल छोड़ने और दफ्तर पहंचने में लेट होते हैं तो इससे बेहतर था एक कूकर ही दे देते।   

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