Wednesday, December 19, 2018

कहानियां चुन लेती हैं हमें कई बार


कौशलेंद्र प्रपन्न
कई बार हम कहानी को चुना करते हैं। वहीं कई मर्तबा कहानियां हमें चुन लेती हैं। याने यदि आप किस्सागो हैं तो अपने लिए कहानियों के प्लॉट तलाशा करते हैं। उस प्लॉट के अनुसार कहानी बुना करते हैं। वहीं दूसरी ओर कई बार प्लॉट हमें बुलाती हैं कि आओ और मुझे कहो। मुझे कहानी में गूंथो। हम भी सुनने वाले के बीच जाना चाहती हैं। क्या प्रेमचंद और क्या कृष्णा सोबती जी, क्या अलका सरावगी और क्या तसलीमा नसरीन सब ने अपने अपने लिए कहानियां चुनीं। कभी हामिद ने प्रेमचंद को चुना तो कभी सिक्का बदल गया की तकसीम ने कृष्णा सोबती को। कभी गूदड बस्ती की कथानक ने प्रज्ञा को। सब के सब लेखक, कवि, कथाकार कहानियों के लिए चुन लिए जाते हैं।
आज यही हुआ। होना ही था। हमपेशा कोई पास में हो तो कब तक ख़ामोश रह सकते हैं। मेरी बगल की सीट पर बैठ गए आकर। कुछ किताबनुमा या गाईडनुमा कोई किताब जिनमें पन्ने लाल, नीली और पीली रंगों में रेखांकित की हुईं थीं। इन पर मेरी नज़र पड़ी। नज़र पड़ी तो मन में खलबलाहट भी होनी ही थी। सो हुई भी। मांफी के साथ पूछ डाला, ‘‘क्या आपका पेपर है?’’ जवाब मिला, ‘‘जी लॉ का पेपर है इन दिनों परीक्षाएं चल रही हैं।’’ वैसे मैट्रो या अन्य स्टेशन पर ट्रेन में अपरिचितों से बात करना, खाना खाना आदि पर चीख चीख कर ताकीद की जाती है कि बात न करें, खाना न खाएं। लेकिन उन सज्जन ने जवाब दिया। लेकिन क्योंकि उन्हें पेपर देना था। इसलिए ज़्यादा बातों में उलझाना मुझे अपराध सा लगा। बस इतना कहा ज़रूर कि ‘‘आपको देख कर अच्छा लगा। वैसे क्या उम्र होगी आपकी?’’ हालांकि किसी अपरिचित से उम्र क्या पूछना और क्यों पूछना लेकिन रहा नहीं गया। उन्होंने भी सादगी के साथ अपनी उम्र भी बताई वो पैंसठ के हैं। सरकारी नौकरी से अवकाश प्राप्त कर चुके हैं। उनसे जब पूछा कि ‘‘वो क्या चीज है जो आपको पढ़ने के प्रति प्रेरित करती है।’’ उनका कहना था, ‘‘घर बैठ कर स्वास्थ्य ख़राब करने से बेहतर है कुछ सीखा जाए। अपनी तालीम बढ़ाई जाए।’’
ऐसे कई सारे लोग हमारे आप-पास हैं जिन्हें देख,पढ़ और सुनकर एक आशा और उम्मीद जगती है कि कभी भी देर नहीं है? किसी भी उम्र में पढ़ना शुरू कर सकते हैं। कभी भी छूटी हुई पढ़ाई व तालीम का लुत्फ उठाया जा सकता है। हार कर या फिर उम्मीद छोड़कर बैठने वाले भी ख़ासा लोग हमारे आस-पास ही हैं। जिन्हें देख और मिल कर लगता है जीवन अवकाश प्राप्ति के बाद बिस्तर पर या फिर पार्क में चक्कर काटते गुजरती है। जबकि ऐसा है नहीं। यदि हमारे अंदर की ललक बची है और नए नए कोणों और अरमानों को पूरे करने हैं कि उम्र कभी भी बाधा नहीं।
यह कहानी इसलिए साझा कर रहा हूं क्योंकि इसे आपके साथ नहीं बांटता तो मुझ तक ही उनकी लालसा और पढ़ने का अभ्यास रह जाता। और ऐसा ही नहीं चाहता था। चाहा कि ऐसी सकारात्मक कहानी, घटनाएं ज़रूर साझा की जानी चाहिए जिन्हें पढ़ और सुनकर, जिनसे मिलकर एक उत्साह जगे और निराशा से भरे मन में एक नई कोपल निकले। हमारे ही आस-पास ऐसे कई लोग हैं जिन्होंने बड़ी उम्र में अपनी पुरानी आदतों और अरमानों को पूरा करने और जीने की शुरुआत की। हमें तो ऐसे लोगों से प्रेरणा और आगे बढ़ने की ललक मिलती है। बजाय कि रोने से कि अब कुछ नहीं हो सकता। कुछ भी तो नहीं हो सकता। अब कौन सा परीक्षा देना है आदि आदि। क्यों पढ़ें? जब पढ़ना छूट जाता है तो कहीं न कहीं हम एक बड़ी दुनिया से कट जाते हैं। हमारा साबका फिर ऐसे लोगों तक ही महदूद रह जाता है जिन्हें पढ़ने-लिखने में कोई दिलचस्पी नहीं है।

1 comment:

Unknown said...

Aakee Baat see purntsh sahmat hoon

शिक्षकीय दुनिया की कहानी के पात्र

कौशलेंद्र प्रपन्न ‘‘ इक्कीस साल के बाद पहली बार किसी कार्यशाला में बैठा हूं। बहुत अच्छा लग रहा है। वरना तो जी ...