Sunday, December 30, 2018

दौड़ते घोड़े को चाबूक न मारो प्यारे



कौशलेंद्र प्रपन्न
कहते हैं यदि घोड़ा दौड़ नहीं रहा है तब उसे चाबूक मारा जाए तो वह दौड़ने लगे। बैठा है तो चलते चलते दौड़ लगाने लगे। लेकिन हम कितने उतावले और अधीर हो गए हैं कि हमें यह देखना तक गवारा नहीं कि घोड़ा दौड़ रहा है। वह गति में है और सही दिशा में है। लेकिन क्योंकि हमें दिखाना है। क्योंकि हम मान बैठे हैं कि स्याले घोड़े ऐसे ही होते हैं। इन्हें काम न करने की आदत जो हो गई है। इन्हें जब तक चाबूक न मारा जाए ये दौड़ेंगे नहीं। दरअसल चाबूक मारने वाला कितना चौकन्ना और किस कदर बेचैन है कि उसे भी कहीं और किसी को दिखाने की अधीरता घेरे हुए हैं कि वह भी काम कर रहा है। काम फल तो उसे भी दिखाना है। वह भी तो किसी के प्रति जवाबदेह है।
जवाबदेही तक तो ठीक है लेकिन आप चिल्लाने लगें यह तो हद है। हालांकि कुछ ऐसे और कुछ वैसे किस्म के लोग भी हुआ करते हैं जिन्हें काम कम दिखाने की जल्दी होती है। कुछ वो लोग होते हैं जिन्हें दिखाने से ज्यादा करने में विश्वास हुआ करता है। वो काम करते हैं। दिख जाए तो ठीक वरना अपने धुन में काम में जुते रहते हैं। वहीं पहले किस्म के लोग करते कम दिखाने में ज्यादा विश्वास रखते हैं। कई बार काम होता हुआ दिखना चाहिए। यह तो ठीक है लेकिन काम हो भी और दिखे भी यह भी ज़रूरी है।
कंपनियां मुनाफा कमाने के लिए तरह तरह की स्कीमें निकाला करती हैं। जिन्हें पूरा करने के लिए कर्मचारी को जी तोड़ मेहनत करनी पड़ती है। और उसी के बल पर कंपनी के बड़े ओहदेदारों को तारीफें भी मिला करती हैं। इसका परिणाम यह होता है कि उन बैठकों तय होता है कि आख़िर ये मजदूर पूरे पूरे दिन करते क्या हैं? बैठे बैठे वक़्त जाया किया करते हैं जब ये इतना काम कर सकते हैं तो इनके काम के घंटे क्यों नहीं बढ़ा देते? क्यों इन्हें हप्ते में पांच दिन बुलाया जाए इन्हें तो छह दिन काम करना ही चाहिए। और देखते ही देखते पांच दिन खटने वाले मजदूरों को उसी पगार में छह दिन झोंकने की योजना बना दी जाती है। जवाबदेही वह मैनेजर की होती है कि कैसे अपने मजदूरों को बहला फुसला कर। डरा धमका कर। औरों के उदाहरण दे कि देखो वो तो छह दिन सात दिन काम किया करते हैं और तुम छह दिन में हांफने लगे। करना ही होगा तुम्हें भी छह दिन। जबकि उस मैनेजर को मालूम हो कि विश्व की कई अध्ययनों शोधों से यह बात साबित हो चुकी है कि मजदूरों, कामगारों को लंबी अवधि में काम के लिए विवश करना कहीं न कहीं काम की गुणवत्ता को प्रभावित करता है। कहां तो दुनिया भर में पांच और चार दिन कार्यदिवस करने की तैयारी चल रही है और आप हैं कि छह दिन पर खूटा गाड़े बैठे हैं।
सब का अपना अपना काम करने का तरीका होता है। सबकी अपनी शैली होती है। लेकिन जब भी नया आता है कि पुराने वाले के कामों को ऐसे हिकारत की नज़र देखता है गोया पहले वाले ने कुछ किया ही नहीं। तुर्रा उसपर यह कि हम सिस्टम ठीक करेंगे। सिस्टम बनाएंगे। कुछ भी प्लान वे में नहीं होता था। कोई तय योजना और सिस्टम नहीं था आदि आदि। क्या पहले बिना किसी सिस्टम के सारे काम हुआ करते थे। दरअसल नए जनाब को अपनी पहचान, अस्मिता और पोस्ट की चिंता ज़्यादा हुआ करती है। उन्हें अपनी उपस्थिति दर्ज़ कराने के किए कई किस्म के हथकंड़े भी अपनाने पड़ते हैं। कुछ पुरानी बेहतर चीजों को ख़राब भी बताना और ठहराना पड़ता है। तब तो बाबू लोग उनकी सुनेंगे कि क्या खूब किया आपने। आपने तो यह भी नया किया, वह भी बदल दिया आदि इत्यादि। इसी उपक्रम में वे दौड़ते घोड़े को चाबूक मारना नहीं भूलते। नहीं भूलते कि हर वक़्त डांटना, कोचना पड़ता है। मगर वो भूल जाते हैं कि दौड़ते घोड़े को चाबूक मारना ग़लत और हानिकारक भी हो सकता है। घोडा़ बिदक भी सकता है।

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