Wednesday, December 12, 2018

...और वो रोने लगीं



कौशलेंद्र प्रपन्न
कभी सोचा न था कि कोई अपनी बात कहते कहते व डायरी पढ़ते पढ़ते रो पड़ेगा। या रो पड़ेंगीं। रोना वैसे कोई स्त्री व पुरूष वर्ग में बांटकर नहीं देख और समझ सकते हैं। किसी कार्यशाला में यदि कोई प्रतिभागी यानी शिक्षक व शिक्षिका रोने लगें तो आप इसे क्या नाम देना चाहते हैं? मेरे लिए यह चौंकाने वाली घटना थीं। लेकिन जब आंसूओं का मोल समझा तो एहसास हुआ कि रोते वो लोग हैं जिन्होंने अपने आंसू को लंबे समय से दबा कर रखा है। किसी के सामने बयां नहीं किया कि उनकी अंतरदुनिया में क्या और किस प्रकार की हलचल चल रही है।
यह वाकया है एक हिन्दी शिक्षकों की कार्यशाला का। इस कार्यशाला में भाषा कौशल की बुनियादी दक्षता की चर्चा हो रही थी। उस विमर्श में भाषायी कौशल श्रवण, वाचन और पठन उसके बाद लेखन कौशल पर अभ्यास का कार्य हो रहा था। पठन कौशल के बाद लेखन पर बात आई। जब बात चली तो हमने कहा आज हम डायरी और यात्रा-संस्मरण लिखते हैं।
तकरीबन सभी प्रतिभागियों ने अपनी समझ से यात्रा-संस्मरण और डायरी विधा में हाथ आजमाया। अब बारी थी पठन की। जब एक एक कर प्रतिभागियों ने पढ़ना शुरू किया तो जिन कौशलों की बात की गई थी उसका प्रयेग वाचन और पठन में कर रहे थे। तभी एक प्रतिभागी की आंखों में आंसुओं का एक रेला लग गया। जैसे ही उनपर नज़र पड़ी तो मेरी आंखें भी भर आईं। लेकिन समझना ज़रूरी था कि क्यों आख़िर क्या वो कहानी है जिससे वो शिक्षिका को ख़ुद को जोड़ पा रही है।
जब उनकी बारी आई तो अपनी डायरी के कुछ पन्ने हमारे साथ साझा किया। वह भी ऐसा कि उससे हमारी आंखों में भी आंसू आ गए। सितंबर में ससुर और अक्टूबर में पिता को कैंसर का पता चला। यह वैसे भी कतना संजीदा घटना थी। डायरी के उन पन्ने को सुनते सुनते सभी की आंखें भर आईं। इसके साथ ही एक और प्रतिभागी थीं जिनकी आंखों में भी आंसू नहीं बल्कि लोर भर भर कर निकल रहे थे।
हर कोई अपने अंदर पता नहीं कितना समंदर दबा कर रखता है। जब कभी मौका मिलता है बस वह अपने अंदर की जज्बातों को उड़ेल देता है। यदि यह विश्वास हो जाए कि जिसके सामने हम अपन बात रख रहे हैंं वह सुरक्षित है। मेरी बात सुनने वाले और समझने वाले हैं। हमारी बात हमारे बीच ही सुरक्षित रहेगी।
हम सब ऐसे व्यक्ति की तलाश ज़रूर करते हैं जिन्हें हम अपनी बात साझा करते हैं उसका मजाक नहीं बनाया जाएगा। हमारी बात और दर्द से कोई जुड़ने वाला होगा। यही हुआ इस कार्यशाला में। शिक्षिका ने अपनी निजी घटनाएं साझा कीं कि कैसे उन्हें पिता और ससुर की बीमारी ने तोड़ा और वो प्रोफेशनल और निजी जिंदगी में सामंजस्य नहीं बैठा पा रही हैं। एक ओर पिता और ससुर और दूसरी ओर स्कूल और शिक्षण। बच्चों के साथ जब न्याय नहीं कर पा रही हैं तो उसका मलाल उन्हें रूलाने लगती है। उन्हें लगता है इनमें बच्चों का क्या दोष? दिन में नींद आने लगती है। लेकिन यह सामंजस्य ज़रा कठिन है। किन्तु पढ़ाने और पढ़ने के प्रति ललक और जिज्ञासा अप्रतीम है। रूचि भी ऐसी कि उन्हें नई चीजें सीखने की ललक उन्हें आगे बढ़ा रही है।

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