Friday, December 18, 2015

भक्तिकालीन साहित्य विमर्शकारों पर विहंगम नजर



हिन्दी साहित्य के समग्र इतिहास पर नजर डालें तो एक बेहद रोचक साहित्यिक यात्रा का दर्शन और आनंद मिलता है। क्योंकि हिन्दी साहित्य कई मोड़ मुहानों से होती हुई आधुनिक काल उत्तर आधुनिक काल तक का सफ़र तय कर पाई है। हिन्दी साहित्य के इतिहास पर सूक्ष्म दृष्टि डालें तो एक तत्व स्पष्ट दिखाई देती है और वह है विभिन्न विधागत् विशिष्टता और शैलीगत ख़ासियत की वजह से विभिन्न काल खड़ों व साहित्यिक वर्गों में बांटा जाना।  हिन्दी साहित्येतिहासकारों की एक लंबी शृंखला हिन्दी साहित्य को भी मिली है जिन्होंने काफी जतन और श्रम के बाद इतिहास लिखा। उसमें मिश्र बंधु हों, ग्रियर्सन हों, गार्दा द ताशी हों, रामचंद्र शुक्ल हों, हजारी प्रसाद द्विेदी हों आदि तमाम इतिहासकारों ने साहित्य की प्रवृत्तिओं और रचनाकारों की रचनाओं को पहचान कर उसकी परिवेशीय और कालिक विशेषताओं कोरेखांकित किया है। यदि उन साहित्येतिहास पर दृष्ट डालें तो पाएंगे कि अमुमन वे इतिहास तत्कालीन साहित्यिक प्रवृत्तियों और रूझानों के मूल्यांकन के पश्चात् उस साहित्य को ख़ास वर्ग में समेट रख दिया गया है। आदीकाल,रीतिकाल, भक्तिकाल, आधुनिक काल मोटो तौर पर तो एक आम पाठकों को सही विभाजन समझ में आता है। किन्तु जब एक साहित्यिक पाठक की दृष्टि से साहित्येतिहास पर नजर दौड़ाएं तो वह इतिहास कई उपवर्गों में बटी मिलेंगी। काल खंड़ांे के विभाजन में भी ऐकमतता नहीं मिलेगी। इन समस्त विभाजनांे मंे एक चीज जो हमेशा ही केंद्र में रही हैं वह है काव्य और काव्य का आस्वाद लेने वाला पाठ वर्ग। यह पाठक वर्ग जब भी जिस भी रचनाकार की ओर उपेक्षित हुआ है वह रचना पाठक वर्ग से कटती चली गई है। ऐकांतिक रचना स्वांतः सुखाए तो हो सकती है पाठकों का लुभाने मंे विफल मानी जाती हैं। जब रचनाएं आमजन की वकालत और समकालीन सामाजिक उथल पुथल पर हस्ते़ा करती है तभी रचनाएं त्रिकालातीत होती हैं। भक्तिकाल और भक्तिकालीन साहित्य, समाज, राजनीति, वैचारिक भूमि पर हजारों पन्ने खरचे जा चुके हैं। विभिन्न शैक्षिक संस्थानों मंे इस विषय शोध दर शोध हो चुके हैं। फिर भी भक्तिकाल के कई ऐसे कोने शोध की मांगे करते हैं। भक्तिकाल पर जितना और जितनी बार विमर्श किया जाए एक नई रोशनी और समझ का प्रस्फुटन होता है।
कमलिनी पाणिग्रही ने भक्तिकाल पर समग्र चिंतनीय हस्तक्षेप करने वाले अपनी क्षमता और श्रम का परिचय देती हैंै किन्तु इस पुस्तक में बड़ी ही शिद्दत से भक्तिकालीन संत-कवियों की समग्र चिंतनीय पक्ष को उद्घाटित करने की कोशिश की गई है। यूं तो भक्तिकाल को जैसे कि हम सुनते-पढ़ते आए हैं यह साहित्य का स्वर्णकाल था। तथाकथित स्वर्ण काल की विवेचना अपेक्षित है। भक्तिकाल के कवियों-संतों की वैचारिक प्रासंगिकता और संदर्भ, परिवेशीय दृष्टि और समय सापेक्षीय मयाने की परतें खोलती यह किताब गंभीरता से पढ़े जाने की मांग करती है। इस किताब में सिलसिलेवार तरीके से ठहर कर एक एक कवियों पर विमर्श किया गया है। सूर,तुलसी, दादू दयाल, रैदास, कबीर आदि की साहित्यिक और आध्यात्मिक प्रसंगों और संदर्भों पर विचार करने से पूर्व इन कवियों की वैचारिक और साहित्यिक सरोकारों की पड़ताल की गई है। इसे लेखिका कमलिनी पाणिग्रही ने ‘भक्ति साहित्य मे आधुनिकता और जीवन-मूल्य’ आमुख में विस्तार से किताब की पूरी परिकल्पना और पाठ योजना का जिक्र करती हैं। कमलिनी पाणिग्रही के अनुसार सर्वप्रथम प्रथम अध्याय प्रमुख भक्त कवियों की रचनाओं और उनकी आधुनिक उपादेयता एक संक्षिप्त परिचय के अंतर्गत प्रमुख भक्ति कवियों के जीवन, दर्शन व काव्य का परिचयात्मक विवरण दिया गया है। परिचय के द्वादा वस्तुतः मूल विषय का लघु कार्य किया गया है। बारह अध्यायों में विभक्त यह पुस्तक विस्तार और गंभीरता से विभिन्न कवियों पर विमर्श करता है। इन बारह आंगनों वाली पुस्तक में मीरा, जायसी,सूरदास,रसखान,रहीम,दादूदयाल,गुरुनानकदेव, नामदेव आदि कवियों को खिलने का अवसर मुहैया कराया गया है।
विचारणीय प्रश्न यह है कि भक्तिकाल को स्वर्णकाल किस मनोदशा और वैचारिक प्रतिबद्धता की ओर संकेत करता है। इसे समझना अत्यंत आवश्यक है कि भक्तिकाल को किन लोगों ने स्वर्ण काल माना व स्थापित किया। यदि इतिहासकारों ने नजर से इस काल को समझने की कोशिश करें तो पाएंगे कि भक्तिकाल को स्वर्णकाल कहने व मानने के पीछे एक गहरी राजनीति चालें काम कर रही थीं। वह राजनीतिक पूर्वग्रह यह था कि भारतीय जनमानस को इस मुगालते में रखा जाए कि वे भक्ति भाव और आध्यात्म की ओर प्रवृत्ति समाज है। वह वह समाज है जिसका अधिकांश समय पूजा पाठ एवं आध्यात्मिक कार्यों में लगता है। दूसरे शब्दों में कहें तो हमारे राजकर्ताओं ने इसे बखूबी समझा और भारतीय को इस गर्व का एहसास कराते रहने में अपनी बेहतरी समझी। इस प्रवृत्ति की एक इतिहासकार की व्याख्या में समझना चाहें तो एक अर्थ यह निकलता है कि क्योंकि भारतीय जनमानस आध्यात्म में रमी हुई थी उन्हें यह साबित करना था कि प्रशासन और कार्यप्रणाली को सुचारू रूप से चलाने का तजुर्बा उनके पास नहीं है इसलिए हम उनके प्रशासनिक कार्यों को देखेंगे। यदि समग्रता में देखें तो भक्तिकाल प्रकारांतर से आध्यात्म की दृष्टि से खासा महत्वपूर्ण मानी जाती है। भक्तिकालतत्कालीन राजाओं व शासकों की पूरी कोशिश यही थी कि किस प्रकार निर्विवादपूर्ण तरीके से शासन किया जाए। ऐसी तभी संभव हो सका जब भारतीय समाज व जनमानस पूरी तरह से आध्यात्म में डूबी हुई थी।
भक्तिकाल को स्वर्णकाल क्यों कहा गया क्योंकि इस काल में दर्शन, आध्यात्म, भक्तिपूर्ण साहित्य की रचनाएं हुईं? क्या इसलिए क्योंकि इस काल खंड़ मंे कबीर, जायसी, दादू दयाल, गुरुनानक,रैदास, तुलसी, सूरदास जैसे स्वनामधन्य भक्तिकालीन संत कवियों से जमकर अपने समय में एक मजबूत हस्तक्षेप किया। साहित्य के मार्फत ही सही किन्तु समाज की जड़ चेतना को जागृत करने की कोशिश की। कबीर जैसे समाजचेत्ता संत और कवि की रचनाएं समाज को झकझोरने का काम कर रही थीं। इस काल मंे रची गई रचनाओं की सामाजिक दरकारों पर विमर्श करें तो पाएंगे कि अमूमन सभी कवियांे ने वत्र्तमान कालीन समाज और सत्ता से टकराने के लिए तैयार थे। यदि एकाध संत कवियांे से छोड़ दें तो बाकी की रचनाएं अपने समय की जकड़नों, टकराहटों, बजबजाहटों को दर्ज कर रही थीं। न केवल विरोध कर रही थीं बल्कि आम जनमानस को प्रेरित भी कर रही थीं। भक्तिकाल की समाजोसांस्कृतिक बेचैनीयत को भी रचनाओं में स्थान दिया गया। कबीर,नामदेव, रैदास आदि कवियों की रचनाओं में समाज वाचाल हो उठता है उसकी ध्वनि हमें तत्कालीन कवियों सुनाई देती है। डाॅ कमलिनी पाणिग्रही ने इस पुस्तक में बड़ी ही शिद्दत से ग्यारह कवियों की मनोभौमिक और रचनात्मक सरोकारों की विवेचना की है।
डाॅ कमलिनी पुस्तक के अमुख और उसके उपरांत प्रथम अध्याय में विस्तार से पुस्तक की योजना और पाठों के बारे में बताती हैं। वेा लिखती हैं कि आज के ढ़ोंगी,पोंगा पंडि़त बने तथाकथित संत महात्माओं की तरह भक्त संतों ने लोगों को गुमराह नहीं किया, उनको ठगा नहीं,उन्हें प्रताडि़त नहीं किया,अच्छाई का आवरण ओढ़कर मानवीयता की हत्या नहीं की। आज संत कहलाने वाले ढ़ोंगी स्त्रियों के प्रति कुदृष्टि रखते हैं,व्यभिचार करते हैं,उनका यौन शोषण करते हैं,उनकी मजबूरी एवं जरूरतों का फायदा उठाते हैं आदि। डाॅ कमलिनी पाणिग्रही ने भक्तिकालीन कवियों की सामाजिक संदर्भ में ंिचंतन सरोकारों को भी केंद्र रखती हैं।
आशा की जानी चाहिए कि यह पुस्तक निश्चित ही एक नई भूमि से परिचय कराने वाली होगी। भक्तिकाल के तमाम कवियों के उन अनावृत्त कोनों, मुहानों से पाठकों को रू ब रू कराएगी। सुदीर्घ चिंतन प्रक्रिया से प्रसूत इस पुस्तक को भक्तिकाल पर आने वाले समय मे शोध छात्रों को मार्गदर्शन प्रदान होगा।

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