Friday, December 11, 2015

शिक्षक की गुणवता और कौशल


समाज के समुचित विकास और संवद्र्धन में शिक्षा,सुरक्षा, स्वास्थ्य आदि को शामिल किया जाता है। इनमें से कोई भी कड़ी यदि कमजोर पड़ती है तो यह समझना चाहिए कि समाज व देश का विकास सही और समुचित दिशा में नहीं हो रहा है। यदि उपरोक्त किसी भी एक के विकास पर ध्यान दिया जा रहा है तो इसका सीधा अर्थ यही निकलता है कि उस समाज का सर्वांगीण विकास नहीं हो रहा है। सरकारें आती जाती हैं लेकिन प्रतिबद्धताएं, समस्याएं, चिंताएं यथावत् समाधान के इंतज़ार में अपनी जगह बरकरार रहती हैं। हमने आजादी के बाद भी यह दुहराना नहीं भूले कि समाज का विकास करना है तो शिक्षा को दुरुस्त करना होगा। वह 1952 की समिति हो, 1964-66 की कोठारी आयोग की संस्तुतियां हों, 1968 की राष्टीय शिक्षा नीति हो, 1986 की राष्टीय शिक्षा नीति हो, 1990-92 की आचार्य राममूर्ति पुनरीक्षा समिति हो, 2002 की संविधान के 86 वें संशोधन के पश्चात् प्राथमिक शिक्षा को मौलिक अधिकारों में 21 ए को शामिल करना हो आदि। इन उपरोक्त समितियों, आयोगों और घोषणाओं की रोशनी में हमें यह देखने की आवश्यकता है कि क्या हमने इन संस्तुतियों को प्राथमिक शिक्षा को बेहतर करने क लिए किस प्रतिबद्धता के साथ काम किया। सरकारें आती और जाती रहीं। हर सरकार ने घोषणाएं खूब कीं किन्तु प्राथमिक शिक्षा की दशा दिशा अभी भी हमारे तय लक्ष्य से दूर है। यहां यह भी बताते चलें कि 1968 में यह बात कही और स्वीकारी गई थी कि 1986 तक सभी बच्चों को प्राथमिक शिक्षा प्रदान कर दी जाएगी। समय और लक्ष्य को बढ़ाया ही गया यह शिक्षा के विकास क्रम पर नजर डालें तो साफतौर पर दिखाई देता है। सन् 1986 भी हमारे हाथ से निकल गया। सन् 1990 मंे सेनेगल में संपन्न अंतरराष्टीय शिक्षा सम्मेलन में विश्व के तमाम देशांे से स्वीकारा और हस्ताक्षर कर कबूल किया कि 2000 तक हम देश के सभी बच्चों को ;6 से 14 आयुवर्ग केद्ध बुनियादी शिक्षा प्रदान कर देंगे। इस दस्तावेज पर भारत ने भी दस्तख़त किए थे। भारत में इस घोषणा को लागू करने में दो वर्ष का अतिरिक्त समय लगा यानी 1992 में भारत इस दस्तावेज को अमलीजामा पहनाता है। यहां दिखाई देती है कि हमारे राजनीतिक धड़ों को शिक्षा की चिंता कितनी थी। हमंे राजनीतिक इच्छा शक्ति का भी परिचय मिलता है कि हमने अब तक शिक्षा का मौलिक अधिकार तक नहीं माना था। हालांकि प्रो. कृष्ण कुमार अपनी किताब गुलामी की शिक्षा और राष्टवाद में इस मसले को उठाते हैं और कहते हैं कि ‘शिक्षा का अधिकार कानून को बनने मंे सौ वर्ष का समय लगा। गोपाल कृष्ण गोखले ने 1910 में शिक्षा के अधिकार की आवाज उठाई थी लेकिन उसे कानूनी रूप मिलने में एक लंबा वक्त लगा। ;6गुलामी की शिक्षा और राष्टवाद, पेज द्ध बहरहाल शिक्षा मंे गुणवता की चिंता से चिंतातुर आवाजा हमें सेनेगल के सम्मेलन में सभी के लिए शिक्षा यानी ईएफए की 6 घोषणाओं व लक्ष्यों में सुनाई देती है। छह लक्ष्यों मंे अंतिम लक्ष्य गुुणवतापूर्ण शिक्षा को स्थान मिला है।
गौरतलब है कि 2002 में संविधान में 86 वां संशोधन के बाद मौलिक अधिकारों में धारा 21 में ए जोड़ा गया और कहा गया ‘निःशुल्क एवं अनिवार्य बुनियादी शिक्षा का अधिकार’ सभी बच्चों ;6 से 14 आयुवर्ग केद्ध को प्रदान किया जाएगा। जैसा की सभी को मालूम है कि यह संशोधन कानून 2009 में बना। यानी भारत के तमाम बच्चों को मौलिक शिक्षा का अधिकार 2009 में मिला। इसी तारीख को तय किया गया कि सभी राज्यों मंे यह 31 मार्च 2013 तक लागू हो जाएगा। यह तय समय सीमा गुजरे भी आज लगभग तीस वर्ष हो चुके हैं। हकीकत यह है कि हमारे देश के लगभग जैसा कि भारत सरकार के मानव संसाधन मंत्रालय की रिपोर्ट बताती है कि आज भी अस्सी लाख बच्चे स्कूलों से बाहर हैं। दूसरे शब्दों मंे कहें तो भारत के कुल बच्चों की जनसंख्या में से अस्सी लाख बच्चों प्राथमिक शिक्षा हासिल करने से महरूम हैं। जब इस आंकड़े को गैर सरकारी संस्थानों, प्रथम, आरटीई फोरम, ग्लोबल मोनिटरिंग रिपोर्ट आदि ने जांचा तो पाया गया कि यह संख्या 5 करोड़ के आस पास बैठती है। आंकड़ों में बात करने वाली सरकार यह तो जरूर पेश करती है कि आरटीई के लागू होने से स्कूलों में बच्चों के नामांकन दर मंे खासा उछाल आया है। लेकिन बीच में स्कूल छोड़ देने वाले बच्चों की संख्या भी बढ़ी है। आरटीई फोरम की वार्षिक सम्मेलन में जारी रिपोर्ट बताती है कि ग्रामीण इलाकों की बच्चियों में स्कूल बीच में छोड़ने की संख्या बढ़ी है। इसके पीछे वजह स्वच्छ और शौचालय का न होना प्रमुख है। ;27,28 मार्च 2015, राष्टीय शिक्षा अधिकार सम्मेलन,रिपोर्ट द्ध वहीं सरकारी शैक्षिक संस्था नीपा की ओर जारी डाइस की रिपोर्ट कभी इस ओर हमारा ध्यान खीचती है कि गांवों और शहरों मंे स्कूल छोड़ने वाले बच्चों में लड़कियांे की संख्या अधिक है। वजह स्कूल का गांव से दूर होना, स्कूल में पीने का पानी और शौचालय का न होना, टीचर की कमी है। ; 2013-14,2014-15 की डाइस की रिपोर्ट द्ध गौरतलब है कि यह रिपोर्ट स्कूली शिक्षकों द्वारा ही भरवाई जाती हैं। देश भर में सरकारी स्कूलों मंे यह कवायद हर साल होती है और यह दस्तावेज किसी की नजर में नहीं चढ़ती। न ही इसपर कोई ख़ास गंभीर कदम ही उठाए जाते हैं। डाइस की रिपोर्ट सरकारी स्कूलों के शिक्षक और प्रधानाचार्य के द्वारा ही तैयार की जाती है इसलिए इस दस्तावेज को खास तवज्जो दी जानी चाहिए।

No comments:

शिक्षकीय दुनिया की कहानी के पात्र

कौशलेंद्र प्रपन्न ‘‘ इक्कीस साल के बाद पहली बार किसी कार्यशाला में बैठा हूं। बहुत अच्छा लग रहा है। वरना तो जी ...