Thursday, December 10, 2015

मरें तो उत्सव हो

मरना भी कितना आसान हो गया है। बबुआ देखो आज मरना भी खेल नहीं तो और क्याबन कर रह गया है। जिसे देखो वही मरने पर उतारू है। कोई कहीं मरता है तो कोई किसी पर मरता है। मरने का बहाना चाहिए बस। कहीं सुंदरी पर कई पैसे पर, कहीं पद पर लेकिन मरना जारी है। मरने के तौर तरीके भी बदले गए। केाई स्मार्ट फोन पर मरता है। कोई स्मार्ट फोन की वजह से मरता है।
हैरत में न पड़ें बस मरने का सबब चाहिए। मरने के सामानों की दुकानें अब आधुनिक होने चाहिए। एसी कमरे में मरे। माॅल मंे मरें। मरें तो उत्सव हो। पार्टी हो। मरो भी तो ऐसे मरो कि लोग ज़ार ज़ार रोएं। मरने के तकनीक भी विकसित हों। हंसते हंसते मरें। हंसने पर मरें। आईए एक शोध का प्रस्ताव तो रखें।
सुखद,आनंदपूर्ण और लक्जुरिएस मौत के सामान यहां मिलते हैं। बस मरने की इच्छा प्रकट करें। बाजार हाजि़र। सर मरने के लिए लोन चाहते हैं? कितनी किश्ते चाहेंगे। आदि बाजार में मरना भी कितना सुखद है। चारों और तमाश ही तमाशा।

No comments:

शिक्षकीय दुनिया की कहानी के पात्र

कौशलेंद्र प्रपन्न ‘‘ इक्कीस साल के बाद पहली बार किसी कार्यशाला में बैठा हूं। बहुत अच्छा लग रहा है। वरना तो जी ...