Thursday, December 3, 2015

नाई की फुसफुसाहट


कौशलेंद्र प्रपन्न
वह बड़ी ही चतुराई और सावधानी से फुसफुसाता है ‘सर! देखिए चेहरा कितना काला हो रहा है। देखिए न बाल सफेद अच्छे नहीं लग रहे हैं। रंग दूं। एकदम नेचुरल कलर लागा दंूगा एकदम पता नहीं चलेगा। और भी सेवा और प्रोडक्ट बेचने के लिए करीने दुकानदारी चलाता है। देखिए न चेहरे पर झांई पड रही है।  अभी उम्र ही क्या है।’ फुसफुसाहट संवाद की एक शैली कही जाए तो ग़लत नहीं होगा। बाज़ार मंे जो भी बैठा है उसे अपने सामान यानी उत्पाद को बेचने की पूरी छूट है। हर दुकानदार अपने अपने तरीके से सामान को बेचने के लिए रणनीति अपनाता है। कोई आवाज लगता है तो कोई विज्ञापन के मार्फत सामान खरीदने के लिए ग्राहकों को लुभाता है। पुरानी शैली पर नजर डालें तो कम लागत में अपने उत्पाद को बेचने के लिए रास्ते अपनाए जाते थे। दुकान के बाहर वस्तुओं के चित्र, साइनबोर्ड आदि के जरिए सामानों के प्रचार किया करते थे। वहीं जैसे जैसे तकनीक और हमारी बाजारीय समझ बढ़ी हमने नई तकनीक का प्रयोग सामानों को बेचने और बिक्री बढ़ाने में करने लगे। याद आता है कभी हमारी गली में सोनपापड़ी बेचने वाले बुढ़े बाबा आया करते थे वो बोलते कुछ नहीं थे बल्कि गा गा कर गलियों में घूमा करते थे। बच्चों को उनके आने का समय और आवाज भी मालूम था कि सोनपापड़ी वाले बाबा आ गए। वो पुरानी कापियों, टीन, शीशी, बोतलों के बदले सोनपापड़ी दिया करते थे। वहीं बरफ जो आज पांच और दस रुपए में आईस्क्रीम वाले बेचा करते हैं, वो हमें दस पैसे और पचीस पैसे में दिया करता था। जिसमंे संतरी, लाल और गुलाबी रंग और थोड़ी मिठास मिली होती थी। वह गाया करता था ‘ गरम गरम घाम बा हमरा पास ठंढ़ा, आव बाबू, आव मईंया बरफ खा ल’ और उस गीत पर बच्चे भागे भागे बरफ वाले को घेर लिया करते थे। इसी तरह अलग अलग चीजों को बेचने वाले गली-मुहल्लों में आया करते। जो बिना किसी अतिरिक्त खर्च के अपने सामान बेच कर चले जाया करते थे। समय के साथ प्रचार और सामान बेचने के तरीके बदलते चले गए। अब घर बैठे आॅन लाइन खरीद्दारी करते ग्राहकों को देखकर लगता है उन्हें मोल भाव करने के आनंद कैसे मिलते हांेगे। घर बैठे शाॅपिंग में अन्य सामानों को देखने और तोल मोल के बोल का सुख जाता रहा।
फेरी वाला, काबूली वाला जैसी कहानियां हिन्दी साहित्य को मिली हैं। इन कहानियों से गुजरते हुए हमें तत्कालीन समाज,संस्कृति और परिवेश की झांकी मिलती है। वास्तव में कहानियां अपने समय और समाज की झालकियां प्रस्तुत किया करती हैं। जब हम फेरी वाला या काबूल वाला कहानी पढ़ते हैं तब हमें यकायक एक फेरी वाले की वस्तुओं को बेचने की शैली से भी रू ब रू होने का मौका मिलता है। कभी समय था जब दुकानदार अपने सामान को सामान के बदले बेचा करते थे। धान, चावल, आलू आदि अनाज के बदले कपड़े, मिठाई, सब्जियां आदि मिला करती थीं। जिसे बाजार की भाषा में पर्ण क्रिया भी कहा जाता था। तब पैसे की बजाए वस्तु के जरिए क्रय-विक्रय हुआ करता था। धीरे-धीरे पैसे,बाजार और विज्ञापन का चलन फैशन मंे आया।
तकनीक के विकास के साथ ही पुराने औजारों मंे दबलाव भी हुए। याद करें तो जब बीस साल पहले मास्टर सलून में जाया करते थे तब उस्तरे से दाढ़ी बनाया करता था। चमड़े की पट्टी पर रगड़ कर तेज किया करता था। यह दौर संभवतः 1990 से 1995 का था। उसके बाद ब्लेड का इस्माल जैसी ही शुरू हुआ उस्तरा पुरानी बात हो गई। यदि किसी से बोलो भी की उस्तरे से दाढ़ी बनाओ तो मुंह बिचका कर देखने लगेगा। नए बच्चे व उस्ताद जो सलून में काम कर रहे हैं उन्होंने तो शायद उस्तरे देखे भी न हों। जैसे जैसे तकनीक में परिवर्तन घटने लगा वैसे वैसे दाढ़ी-बाल कटाने के रेट में भी उछाल देखे गए। कभी वक्त था जब दो से पांच रुपए में दाढ़ी बना करती थी। अब दुकान बदले दाम भी बदल गए। पचास रुपए से लेकर सौ रुपए मंे दाढ़ी बना करती है। सड़क पर दाढ़ी-बाल काटने वाला अभी भी वीजाॅन लगा कर दाढ़ी बनाता है। पैसे सिर्फ दस रुपए। बाल काटने के बीच रुपए। लेकिन जैसे ही सलून में प्रवेश करते हैं समझिए पचास रुपए तो गए। वो भी पूछेगा कि क्रीम से बनाउं या फाॅम से या ज़ेल से। जब आप अंतर पूछेंगे तो बताएंगा किस से कितनी शाॅफ्ट दाढ़ी बनती है। सलून वाला बड़ी की गंभीरता ओढ़ते हुए बताएगा कि फाॅम से दाढ़ी बनवाएं अच्छा लगेगा। पैसे पूछ बैठे तो धीरे से कहेगा आपके लिए कुछ कम कर दूंगा। यही किस्सा यहीं नहीं रूकता बल्कि एक कदम आगे बढ़ता है। दाढ़ी बनाते व बाल कतरते हुए कानों में बोलेगा सर! चेहरा बहुत काला और सूखा लग रहा है। ब्लीच और फेसियल कर दूं। करा लीजिए सर बहुत दिन हो गए। और धीरे से रूई से चेहरे को पोछते हुए दिखा भी देगा कितना काला निकला। जब दाम पूछेंगे तो वही जवाब आप से क्या लूंगा वैसे तो 450 व 500 है आपके लिए 350 हो जाएगा। यदि आपने हांमी भर दी। अब देखिए उसके हाथ कितने तेजी से चलते हैं। उसकी बिक्री यहीं नहीं ठहरती। आगे की बिक्री उसकी जारी रहती है। सर! फलां वाला ज्यादा अच्छा है थोड़ा महंगा है लेकिन मैं कहूंगा वही लगवाइए। और देखते ही देखते जो सिर्फ बाल कतरवाने आए थे वे साहब चार सौ से पाचं सौ का बिल हाथ में लेकर दुकान से बाहर निकलते हैं।
दरअसल अपने उत्पाद के प्रचार के लिए हर बिक्रेता तरह तरह के हथकंड़े अपनाता है। वह चाहे नाई हो या ठेकेदार या मकान,दुकान बेचने वाला। सब के तौर तरीके में ज़रा सा अंतर होगा। लेकिन मूल मंे कोई परिवर्तन नहीं होगा वह है अपने सामान व उत्पाद को कैसे बेचा जाए। कई बार लगता है कि क्या व्यक्ति इस बाजार में है या बाजार व्यक्ति में है? कौन किस में समा गया है। कई दफा अंतर करना मुश्किल होता है। घर न हुआ गोया बाजार के शोरूम हो गया। जो चीज अगले साल अगले मौसम में काम आने हैं लेकिन हम इसलिए खरीद लेते हैं क्यांेकि इस समय उस सामान पर सेल है। तो भाई साहब हमें कफ़न भी अभी ही खरीद लेने चाहिए क्या पता जब हम मरे तब उसकी कीमत कितनी बढ़ा जाए। मेरे बड़े भाई राघवेंद्र जी ने इसी संवेदना पर एक कविता भी लिखी थी। जो खासे गंभीरता से बाजार के चाल को पकड़ने और हम पर पड़ने वाले प्रभाव को विमर्श के घेर में लिया है।

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