Thursday, December 24, 2015

डिजिटल इंडिया में अंकीय भाषायी पहचान


कौशलेंद्र प्रपन्न
हमारा समाज और भाषायी परिवेश बहुत तेजी से करवटों के दौर से गुजर रहा है। हमारा समाज ज्ञान और सूचना को भोजपत्र,पेपाइरस,ताम्रपत्र,क्ले टेब्लेट्स आदि से होता हुआ टेरा बाइट्य,गेगा बाइट्स के समय तक का सफ़र तय कर चुका है। इस काल खंड़ में हमारी भाषा,तकनीक,माध्यम आदि भी बदले हैं। बदला है तो हमारा समाज भी। यदि नहीं बदला है तो ख़ुद को अभिव्यक्त करने की छटपटाहटें, बेचैनीयत और जो कहा गया, जो कथ्य है उसे कैसे आने वाली पीढ़ी तक पहुंचाई जाए इसके लिए माध्यम का चुनाव। मुद्रण का प्रकाशन, लेखन और संरक्षण के माध्यम और तकनीक में दिनों दिन सुधार और विकास हुए हैं। उत्तरोत्तर हमारी समझ और ज्ञान को संप्रेषित करने का जरिया भी बदला है। विद्यालयी, विश्वविद्यालयी कक्षाओं से लेकर समाज का ग्राह्य समूह की भाषा भी बदली है। डिजिटल इंडिया में यदि भाषायी सरोकार और भाषायी हस्तक्षेप को देखने-समझने की कोशिश करें तो पाएंगे कि डिजिटल इंडिया में खुद को अभिव्यक्त करने की हमारी भाषा भी ख़ासा बदल चुकी है। डिजिटल इंडिया मंे भाषा का संकुचन भी दिखाई देता है। लंबे लंबे वाक्य, लंबे साहित्य के स्थान पर लघु स्वरूप चलन मंे आ चुका है। लंबी कहानियों, कविताओं की भाषा और काया भी संकुचित हो गई है। कभी चांद का मुंह टेढ़ा है, अंधेरे में जैसी कविताएं लंबी होने के बावजूद भी सुपाठ्य थीं। आज लघु कविताएं,कहानियां कई बार अपने कथ्य के बल पर नहीं बल्कि प्रचार के कंधे पर सवार होकर पाठकों तक पहुंच बनाया करती है। यह अंतर स्पष्ट दिखाई देता है।
कक्षा और कक्षा के बाहर के समाज में भाषायी चरित्र में भी रद्दो बदल देखे जा सकते हैं। भाषा को सहज और सरल बनाने के तर्क पर भाषा को कहीं गंदला ही किया गया है। समाज में एक ऐसा वर्चस्वशाली वर्ग भी है जो लगातार बच्चों की स्कूली पाठ्यपुस्तकों में ख़ालिस पाक हिन्दी के शब्दों को ही देखना चाहता है। उस समृद्ध भाषायी दर्शन का गला घोटकर अन्य बोली भाषा के शब्दों को हिन्दी के आंगन से बेदख़ल करने पर आमादा है। इसे भाषा शास्त्र की दृष्टि से स्वीकार नहीं किया जा सकता। एक लंबे अकादमिक और शिक्षा शास्त्रीय विमर्श में भी इस परिघटना को सकारात्मक नजरिए से नहीं लिया गया। प्राथमिक कक्षा से लेकर उच्च शिक्षा में भी भाषा को लेकर एक नया रूख़ देखने को मिल जाएगा। दूसरे शब्दों में कहें तो स्कूल से लेकर काॅलेज तक में भाषा का एक रेखीय विकास देख सकते हैं। जहां भाषायी शुद्धता के नाम पर जिस प्रकार के बदलाव किए जा रहे हैं वह भाषा के लिए शुभ संकेत नहीं हैं। भाषायी विकास में साहित्य के अहम योगदान को नकारा नहीं जा सकता। बाजारीय दबाव ने साहित्य शिक्षण और साहित्य पठन-पाठन को लघुकृत और छिछला ही किया है। यदि 2006 का समय याद हो तो केंद्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड ने दसवीं और बारहवीं कक्षा की भाषायी परीक्षा में बहुवैकल्पिक प्रश्नों का सिलसिला चलाया। इसके पीछे तर्क यह दिया गया था कि बच्चों को भाषा मंे काफी दिक्कतें आती हैं। इसलिए उन्हें बहुवैकल्पिक प्रश्न दिए जाएं ताकि बच्चे आसानी से समझ और लिख सकें। इसी का परिणाम था कि बच्चों ने बहुवैकल्पिक उत्तरों मंे से एक को छांट कर अस्सी और नब्बे प्रतिशत अंक तो लाने लगे किन्तु भाषायी दक्षता छितराती चली गई। भाषायी दक्षता से मायने लिखने,पढ़ने और बोलने जैसे कौशलों से ये बच्चे वंचित होने लगे। न तो वे शुद्ध लिख पाते हैं और न बेहतर तरीके से बोल ही पाते हैं। यह ऐसा किशोर वर्ग तैयार होने लगे जिनके पास न हिन्दी थी और अंग्रेजी। न ही उन्हें अपनी मातृभाषा पर ही अधिकार रहा। क्योंकि मातृभाषा कहीं न कहीं उन्हें हीन लगने लगे। न तो मातृभाषा मंे रोजगार था और न आगे की पढ़ाई मंे कोई सकारात्मक मदद ही मिलने की रोशनी दिखाई दे रही थी। ऐसे में बच्चों ने हिन्दी व अन्य भारतीय भाषाओं के स्थान पर गैर भारतीय भाषाओं को प्रथम पसंद के तौर पर पढ़ना शुरू किया। इसकी झलक किसी भी निजी स्कूलों में कक्षा छह और आठवीं मंे बच्चे फ्रैंच, जर्मन, मदारियन आदि भाषाएं पढ़ने लगे। यहीं से अपनी मातृभाषा और भारतीय भाषाओं से हमारे युवाओं का मोह भंग होने लगा। क्योंकि उक्त भाषाओं में न केवल अंक मिल रहे थे बल्कि इन भाषाओं मंे उन्हंे रोजगार की संभावनाएं भी ज्यादा दिखाई गईं। बाजार की भाषा को पाठ्यक्रमों और भाषा नीतियों में तवज्जो दिया जाना इस बात की ओर संकेत है कि भाषा शिक्षण और अध्ययन महज स्वांतःसुखाए नहीं हो सकता बल्कि यदि युवाओं को भाषा रोटी नहीं दे सकती तो उस भाषा को क्यों पढ़ा जाए। भाषा नीति ने भी भाषा के विकास में बाधा पैदा किए हैं। भाषा संरक्षण आयोग और समितियों ने अपना कर्तव्य बखूबी नहीं निभाया जिसका परिणाम है कि आज भाषाएं दिन प्रतिदिन मर रही हैं और अप्रासंगिक हो रही हैं।
डिजिटल इंडिया व सूचना संप्रेषण तकनीक दोनों मंे गहरा रिश्ता है। इन दिनों को एक साथ एक मंच पर समझने की आवश्यकता है। इन दोनों में एक तत्व समान यह है कि समाज को किस प्रकार से सूचना तकनीक और उपकरणों से जोड़ कर समाज को अत्यंत आधुनिक समाज की ओर हांक दिया जाए। जहां सब कुछ सत्यं शिवं और संुदरम् है। आईसीटी का हमारे समाने सिर्फ उजला पक्ष ही परोसा जा रहा है। इस उजले पक्ष को देखकर अंदाजा लगाना कठिन नहीं है कि आने वाला समाज किस तेजी से अपने मूल्यों, सूचना को कितना और किसे साझा किया जाए इसपर विचार किए बस साझा करने पर उतारू हो जाए। सूचना संप्रेषण तकनीक ने निश्चित तौर पर हमारे कामकाज को गहरे तक बदलने का माद्दा रखता है और काफी हद तक बदल भी दिया है। यह बदलाव हमारे रोजमर्रंे की जिंदगी में भी घट रही हैं। कामकाज की शैली तो बदली ही है साथ ही हमारी आम और निजी जिंदगी के मायने और निजता भी प्रभावित हुई है। बदलाव के दौर मंे निजी और आम की परतें तकरीबन खत्म हो गई हैं। इस डिजिटल इंडिया की भाषा में बदलाव बहुत तेजी से घटित हुए हैं। यहां भाषा अपनी पुरानी काया लेकर नहीं है बल्कि यहां भाषा अंकों यानी डिजिट में मौजूद है। हर किसी की अभिव्यक्ति और उपस्थिति एवं पहचान अंकीय हो गई है। दूसरे शब्दांे मंे हमारी पहचान भोजपुरी,मैथिली, अवधी, पंजाबी भाषी से हट कर अंकों में हो गई है। वह आधार नंबर, पासपोर्ट, राशन कार्ड वगैरह। क्या एक इंसान की पहचान महज अंकों मंे सिमट गई है।

No comments:

शिक्षकीय दुनिया की कहानी के पात्र

कौशलेंद्र प्रपन्न ‘‘ इक्कीस साल के बाद पहली बार किसी कार्यशाला में बैठा हूं। बहुत अच्छा लग रहा है। वरना तो जी ...