Wednesday, December 30, 2015

पूर्वी दिल्ली में बिन वेतन पढ़ाते शिक्षक


कौशलेंद्र प्रपन्न
पिछले तीन माह से पूर्वी दिल्ली नगर निगम के प्राथमिक शिक्षकों को वेतन नहीं मिले हैं। यह इसी तीन माह की बात नहीं है, बल्कि हर साल की यही स्थिति है। जनवरी फरवरी और मार्च में तो और भी बुरा हाल होता है। यह आलम देश की राजधानी दिल्ली के शिक्षकों की है। पूर्वी दिल्ली और दिल्ली के दूसरे निगमों के शिक्षकों की भी स्थिति लगभग एक सी है। पूर्वी दिल्ली के नगर निगम में पढ़ाने वाले शिक्षक हर्ष भारद्वाज हों या संदीप त्यागी, हिना कौसर  हों या शशि किरण इन तमाम शिक्षक/शिक्षिकों को विलम्ब से वेतन मिलने पर आक्रोश तो है ही साथ ही चिंता भी है कि तीन तीन माह तक बिना वेतन के कैसे घर चलाया जाए। कैसे कोई अपनी व्यावसायिक प्रतिबद्धता और अपने आत्मबल को बरकरार रख सकता है। सुना था कि दिल्ली के बाहर अन्य राज्यों में शिक्षकों के वेतन लेट लतीफ मिला करते हैं। लेकिन जब देश की राजधानी में यह हाल है तो देश के अन्य राज्यों में शिक्षक कैसे जीवन और शिक्षण के बीच तालमेल बैठा पाते  होंगे।
समाज में शिक्षकों को उनकी जिम्मेदारी और प्रतिबद्धता और कर्तव्य की ओर तो ख्ुाल कर बोला जाता है लेकिन जब शिक्षकांे को सैलरी नहीं मिल रही है तब उनके लिए समाज खामोश है। जब हमारा शिक्षक वर्ग खाली पेट होगा और कक्षा में शिक्षण कर्म करेगा तब उसके लिए समाज में आवाज उठाया जाना हमारा फर्ज है। लेकिन हम नागर समाज के लोग इस मसले पर मौन साधे बैठे हैं। दरअसल शिक्षक समाज को दबाने और दमित करने की रणनीति और प्रयास हमेशा से ही होते आए हैं। इनके हक और पेट के लिए बहुत कम ही लोग कमर कस कर आगे आते हैं। विभिन्न राज्यों से आने वाली तस्वीरें और ख़बरें हमारी नींद नहीं उड़ाती जब उनपर गोरू डांगर के मानिंद लाठियंा और पानी के बौछार किए जाते हैं। इस में बिहार, उत्तर प्रदेश, पंजाब और हरियाणा सब एक ही मंच पर खड़े नजर आते हैं। इन राज्य सरकारों ने जब भी मौका मिला है उन्होंने शिक्षकों के वेतन और सुविधाओं को लेकर उठने वाली आवाज को दबाने की कोशिश ही की है।
लाठियां न केवल वेतन मांगे जाने पर बरसायी गई हैं बल्कि सालों साल संविदा यानी कांट्रेक्ट पर खटने वाले शिक्षकों की ओर स्थाई करने की मांग आई हो उसे बड़ी क्रूरता से कुचला गया है। अनुमान लगाना कठिन नहीं है कि हमारे शिक्षक किस दौर से गुजर रहे हैं। एक ओर तमाम सरकारी स्कूलों को निजी हाथों में सौंपे जाने की आंधी चल रही है। विभिन्न राज्यों में सरकारी स्कूल धड़ल्ले से बंद हो रही हैं। राजस्थान में तकरीबन 18000, उत्तराखंड़ में 4300, छत्तीसगढ़ में 3300 आदि स्कूल बंद किए जा चुके हैं। गौरतलब बात यह है कि इसके खिलाफ समाज में कोई पुख्ता आवाजा व विरोध नहीं हुए हैं। कुछ गैर सरकारी संस्थानों ने अपनी आपत्ति दर्ज जरूर कराईं किन्तु उनकी आवाज अनसुनी कर दी गई।
प्रो कृष्ण कुमार अपनी किताब गुलामी की शिक्षा और राष्टवाद में बड़ी ही गंभीरता से उठाते हैं कि किस प्रकार शिक्षक की सत्ता और व्यक्तित्व को कमतर किया गया। शिक्षा विभाग में शिक्षक की हैसियत एक दीनहीन कर्मचारी से ज्यादा नहीं होती। कृष्ण कुमार इस किताब में जिक्र करते हैं कि वेतन के स्तर पर बीस और पचास रुपए दिया जाता था। वहीं स्कूल निरीक्षक का पगार ज्यादा होता था। शिक्षा का आर्थिक प़क्ष पर अभी तक विशेष काम नहीं हुआ है। जहां कोठारी आयोग ने 1964-66 में जीडीपी का छी फीसदी देने की बात की थी किन्तु आज भी हम उसे पाने में असफल रहे हैं।
यदि शिक्षकों की सैलरी की ओर नजर दौड़ाएं तो इस मायने में बिहार,उत्तर प्रदेश में तो विलंब की खबरें सुनी जाती थीं। लेकिन देश की राजधानी में भी प्राथमिक स्कूलों के शिक्षकों को तीन चार माह से वेतन नहीं मिलने की ओर न तो सरकार की ओर से और न मीडिया की ओर कोई मजबूत आवाज उठाने की खबर आई है। राज्य सरकार सीधे अपना बचान करते हुए केंद्र सरकार के मत्थे ठीकरा फोड़ा करती है। राज्य सरकार का तर्क है कि हमारे पास इतना बजट नहीं है कि हम अपने कर्मचारियों को समय पर वेतन दे पाएं। जब से दिल्ली के नगर निगमों को चार भागों में बांटा गया है तब से पूर्वी दिल्ली नगर निगम अपने शिक्षकों को समय पर वेतन देने में पिछड़ रही है। पूर्वी दिल्ली नगर निगम में न केवल शिक्षकों की सैलरी समय पर नहीं मिल रही है बल्कि तमाम शिक्षा विभाग के अधिकारियों की सैलरी भी विलंब से मिला करती हैं।
शिक्षकों पर पानी के बौछार और लाठियां हर राज्य में बरसायी जाती हैं। जब जब शिक्षकों ने अपनी सैलरी, सेवाओं के बाबत आवाज उठाई हैं तब तब राज्य व केंद्र सरकार बचाव और आक्रामक रूपधारण लेती हैं। माना जाता है कि प्राथमिक शिक्षा और शिक्षकों को बाजार के हाथ में सौंपने का खेल 1986 से ही शुरू हो चुका था। राज्य और केंद्र सरकारों ने पैसे बचाने और बाजार को सरकारी स्कूलों में प्रवेश दिलाने के लिए ही पीपीपी माॅडल पर जोर देना शुरू किया। साथ ही प्राथमिक शिक्षा और स्कूलों को निजी हाथों मंे सौंपे जाने की घटना कम से कम भारत की जमीन के लिए नई थी। आज विभिन्न निजी संस्थाएं सरकारी स्कूलों को अपने हाथ में लेने के लिए तैयार हैं बल्कि ले भी चुकी हैं। वह दिन दूर नहीं जब सरकारी के शिक्षकों पर भी यह बादल घहराए। यदि समय रहते संभले नहीं तो सरकारी स्कूलों के शिक्षकों को भी अनुबंधों पर खटने के लिए तैयार रहना चाहिए।

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