Tuesday, December 29, 2015

प्रचार और चर्चा से बाहर खड़ी किताबें


कौशलेंद्र प्रपन्न
आज की तारीख में साहित्य भी एक प्रोडक्ट है जिस तरह से बाजार में विभिन्न प्रोडक्ट को बेचने के लिए रणनीति बनाई जाती है उसी तर्ज पर किताबों को बेचने और प्रचार करने के लिए प्रयास किए जाते हैं। इसमें प्रकाशक,लेखक और पाठक तीनों ही शामिल होते हैं। दूसरे शब्दों मंे कहें तो अच्छी से अच्छी से किताब भी पाठकों तक नहीं पहुंच पाती यदि उसका प्रचार और प्रसार समुचित न किया जाए। यह अगल विमर्श का मुद्दा है कि प्रकाशक अपने उत्पाद को बेचने के लिए किस तरह की रणनीति बनाता है। लेखक भी अपनी किताब को प्रमोट करने के लिए विभिन्न तरह के प्रयास किया करता है। वह सोशल मीडिया,प्रिंट मीडिया और तमाम माध्यमों के मार्फत अपनी किताब को पाठकों तक पहुंचाने की कोशिश करता है। अब सवाल यह है कि जो प्रकाशक व लेखक अपनी किताब व प्रोडक्ट के प्रचार नहीं करते क्या वह पठनीय नहीं हैं? क्या ऐसी हजारों किताबें नहीं लिखी जा रही हैं जो प्रचार से दूर शोर से बाहर अपनी पठनीयता के बावजूद अंधेरे में गुम हो जाती हैं। निश्चित ही बिना प्रचारित ऐसी किताबें हर साल छपती और किसी अंधेरे कोने में सिमट कर रह जाती हैं जिन्हें कायदे से पढ़ने जाने की आवश्यकता है। साहित्य तमाम विधाओं में हजारों की संख्या में किताबें हर साल लिखी और छापी जाती हैं। वह चाहे कहानी,कविता,उपन्यास,निबंध,यात्रा संस्मरण,व्यंग्य आदि ही क्यों हो। साल के अंत में मूल्यांकन का दौर शुरू होता है कि उन किताबों में से कौन सी किताब ज्यादा चर्चा व मांग में रही। किस किताब ने पाठकों को अपनी ओर खींचा आदि। वहीं समग्रता में कहें तो यह काल ख्ंाड़ किताब और किताब के कंटेंट और लेखकीय सफलता और विफलता के पड़ताल का समय होता है। कई बार लेखक स्वयं यह मूल्यांकन करता है। कई बार दूसरे धड़ों के लोग इस काम को अंजाम दिया करते हैं। वे दूसरे कौन लोग हैं उनकी पहचान जरूरी है। ये दूसरे वे लोग हैं जो लगातार साल भर विभिन्न विधाओं में छपने वाली किताबों की समीक्षाओं, मांगों और पाठकों के रूझानों की पड़ताल किया करते हैं। छपने वाली किताबों पर नजर रखने वाला सबसे बड़ा चैकीदार स्वयं लेखक भी होता है। दूसरे लेखक क्या लिख रहे हैं, कैसे लिख रहे हैं एवं नए आयामों से किनका चिंतन इन दिनों ज्यादा सराहा जा रहा है आदि पर पैनी नजर रखते हैं। इसलिए साल के आखिरी पखवाड़े में इन लेखकों से राय ली जाती है कि आपकी नजर में इस बरस कौन कौन सी किताबें हैं जिन्होंने अपनी पठनीयता बरकरार रखीं जैसे सवालों का जवाब स्वयं देते हैं। हालांकि कई लेखक चलते चलते यह भी जवाब दे देते हैं कि दूसरे लेखकों को पढ़ने का मौका नहीं मिला। यह बड़ी दुखद बात है। क्योंकि यदि लेखक ही दूसरों की रचनाओं को नहीं पढ़ेगा तो पाठकों से क्या उम्मीद की जा सकती है। पहली और महत्पूर्ण बात तो यही है कि स्वयं लेखक की भी आंखें खुली रहनी चाहिए कि उनके क्षेत्र में इन दिनों क्या लिखी जा रही हैं, कैसी लिखी जा रही है। लेखक की प्रतिबद्धता सिर्फ लिखने तक महदूद नहीं होती बल्कि लेखक अपने आस पास लिखी जाने वाली रचनाओं पर नजर रखना तक फैली हुई है।
वर्ष 2015 में किस विधा में किस लेखक की किताब चर्चित रही इसे जानना भी दिलचस्प होगा। विभिन्न अखबारों और पत्रिकाओं में वर्ष का अंतिम हप्ता इन्हीं पड़तालों मंे दिया जाता है। इस बार की चर्चित किताबों पर लेखकों की राय मानें तो कविता, कहानी, उपन्यास, आलोचना आदि मंे पर्याप्त संतोषजनक लेखन हुआ। इनमें एक सावधानी यहां यह बरतनी चाहिए कि जिन किताबों की चर्चा की जा रही है क्या वह चुनाव निष्पक्ष हुआ है या वैचारिक रूझान से ग्रसित है। क्या लेखक बिरादरी ने एक खास खेमे को बढ़ाने और दूसरे को नजरअंदाज करने की मनसा से किसी किताब की ज्यादा चर्चा तो नहीं की और दूसरी किताबों को तवज्जों तक नहीं दिया। यहां पाठकों को तय करने दिया जाना चाहिए कि उनकी नजर में कौन सी किताब उनकी अपेक्षाआंे को पूरी कर पाईं। क्योंकि पाठक को एक किताब से क्या उम्मीद होती है? किताबें पाठक को क्या देती हैं? लेखक अपने किताब से क्या पाता है? अंततः किताब से समाज को क्या मिलता है आदि सवाल कई बार उठते हैं जिसका जवाब लेखक,आलोचक अपनी समझ और अनुभव से देने की कोशिश करता है। एक लेखक के तौर पर लेखक जो कुछ भी लिखता है उसकी पूर्वपीठिका तो बनाता ही है साथ ही वह अपनी लेखकीय योजना में यह भी जरूर शामिल करता है कि इस किताब से वह क्या और किसे अपनी बात रखना चाह रहा है। जब वह एक बार यह तय कर लेता है कि उसकी रचना के पाठक वर्ग कौन हैं? पाठक वर्ग की अपेक्षा लेखक से क्या है? आदि सवालों पर विमर्श करने के बाद लेखन करता है तब उस किताब की प्रासंगिकता और प्रसार ज्यादा से ज्यादा जनसमूह तक होता है। पाठकों को किताब से बहुआयामी अपेक्षाएं होती हैं। यदि बहुअपेक्षाओं मंे से दो चार उम्मीदें भी पूरी होती है तो पाठक को छला जाने का भाव नहीं घेरता। वरना किताब खरीदे जाने और पढ़े जाने के बाद यह महसूस हो कि लेखक ने वह बात व विचार स्थापित नहीं कर पाया जिसकी योजना व छवि किताब की शुरुआत में बनाई गई थी। सचपूछा जाए तो लेखकीय संसार को समझने और स्थापित करने में पाठकों का बड़ा हाथ होता है। जो लेखक अपने पाठक को नजरअंदाज करता है तो उसकी किताब पाठकों की आंखों से उतर जाती है।
यदि वर्ष 2015 की चर्चित किताबों पर नजर डालें तो निश्चित ही प्रभात रंजन की कोठागोई, संजीव की फांस, रक्तचाप और अन्य कविताएं-पंकज चतुर्वेद, अपने ही देश में-मदन कश्यप, पिता भी होते हैं मां- रजत रानी मीनू, फतेहपुर की डायरी, स्वप्न साजिश और स्त्री-गीता श्री, ऐ गंगा तुम बहती हो क्यों-विवके मिश्र, अनिहायारे तलछटी में चमका-अल्पना मिश्र, प्रियदर्शन की बारिश,धुआं और दोस्त, दिविक रमेश की मां गांव मंे है आदि किताबें अपनी ओर पाठकों का ध्यान खींचती हैं।
वहीं व्यंग्य विधा की बात की जाए तो लालित्य ललित की जिंदगी तेरे नाम डाॅंिलंग, अरविंद कुमार खेडे का भूतपूर्व का भूत, मधु आचार्य आशावादी का, आकाश के पार, सुधाकर पाठक का जिंदगी कुछ यूं ही, मले जैन की ढाक के तीन पात, मीना अरोड़ की सेल्फ पर पड़ी किताब, अरविंद तिवारी की मंत्री की बिंदी, रहीं। वहीं कविताओं के क्षेत्र में देखें तो नए पुरानांे की भी कविताओं की संख्या काफी है।
आज की तारीख में मुद्रित किताबों की बात की जाए तो हजारों और लाखों में छप और प्रसारित हो रही हैं। लेकिन किताबों के उस जखीरे से कितनी किताबों के दिन बिहुरते हैं। कितनी किताबों को पाठक मिल पाते हैं? यह एक गंभीर विमर्श का मसला है। तकनीक के इस प्रसारीय युग में प्रकाशन से लेकर वेबकास्ट, टेलीकास्ट, ब्राड कास्ट के युग मंे पाठकों की सीमाओं को भी समझना होगा। समय में कोई आॅल्टरेशन नहीं हुआ है। समय सीमित है। उसी समय में से टीवी, मोबाइल,लैपटाॅप,टेबलेट्स आदि के लिए भी समय निकल चुके हैं। अब कल्पना कीजिए कि एक पाठक के पास इन सब चीजों के बाद कितना समय बचता है। क्या तब समय की इस मारामारी में पढ़ने के समय की पहचान कर सकते हैं। समाज में आमजनता क्या पढती है इसकी पड़ताल करें तो पाएंगे कि सुबह को छपने वाली शाम तक रद्दी के हवाल होने वाले अखबार को पढ़कर यह मान लिया जाता है कि वे पढ़ते हैं। हालांकि खुश होना चाहिए कि कम से कम कुछ पढ़ी जा रही हैं। लेकिन अकादमिक धड़ों से पढ़ने की उम्मीद जब बंधती है तब हमारी अपेक्षाएं बढ़ जाती हैं। हम उनसे गंभीर पठन की आशा करते हैं। लेकिन आमतौर पर पढ़ने वाले पाठकों में किताब ;कहानी,कविता,उपन्यास,निबंध,यात्रा संस्मरण आदिद्ध पढ़ने लालसा अभी बची हुई है।
किताब को महज पन्ना दर पन्न बांचना और किनारे कर देना संभव है पढ़ना नहीं है। बल्कि पढ़ना दरअसल समझना भी है। जब हम कोई किताब पढ़ते हैं तो हमारे साथ उस किताब की हर पंक्ति, शब्द, भाव हमसे एकाकार हो रहे होते हैं। यदि किताब ऐसा नहीं करती तो यह किताब का दोष नहीं बल्कि लेखक की कमी मानी जाती है। किताब से पाठक का रिश्ता बेहद गहरा होता है। इस संबंध को कसावदार और उष्मीय बनाने का काम लेखकीय क्षमता और कौशल किया करती हैं। यदि लेखक की शैली,कथ्य,परिवेश,संवाद आदि सुसंबद्ध और सुनियोजित नहीं हैं तभी किताब की असामयिक मौत हो जाती है। वह पुस्तक लाख बड़े नाम की हो लेकिन पाठक को आकर्षित करने मंे विफल रहती है। संभव है इस तरह की चुनौतियां हैं जिसे यदि लेखक अपने ध्यान में रखे तो न वो और न उसकी रचना पाठकों से दूर हो सकती है।
समालोचना और वर्ष के साहित्यिक विवेचना जब भी होती है जो भी करता है उससे काफी कुछ छूट जाने की भी पूरी संभावनाएं रहती हैं। यह इस रूप में भी समझने की आवश्यकता है कि जो जिस विधा और क्षेत्र से जुड़ा है उस क्षेत्र की किताबों के बारे में तो जानकारी होती है लेकिन अन्य विधाओं में कौन सी बेहतरीन किताब लिखी गई वह उस आलोचक की दृष्टि से ओझल हो जाया करती हैं। यदि भाषा, शिक्षा, अर्थतंत्र, बाल साहित्य,पत्रकारिता जैसे विषयों की ओर देखते हैं तो इन क्षेत्रों में आई किताबों की जानकारी इन आलेखों, समीक्षाओं में नहीं मिलतीं। उन किताबों के कंटेंट की मांग है कि उन्हें भी ठहर कर पढ़ा जाए। ज़रा देखने की कोशिश की जाए क्या उनमें लेखक ने अपने विषय से न्याय किया यदि किया तो क्यों उनकी चर्चा नहीं हुई।

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