Monday, December 21, 2015

छपेगा वही जो लिखेगा


उन्होंने लिखा,छपे और चर्चित हो गए। देखते ही देखते बेस्ट सेलर भी हो गए। जिधर देखिए उधर ही चर्चा का बाजार गरम कर गए। हर दस सौ पाठकों में से अस्सी के हाथ में उनकी किताब। ऐसे लेखक लिखते नहीं छपने का हुनर जाना करते हैं। प्रकाशक इंतजार में होते हैं कि कब उनकी कलम से शब्द गिरें और कब लपक लें। इधर लिखे नहीं कि उधर छपे। इस तरह के साहित्य का बाजार इन दिनों ख़ासा गरम है। हिन्दी और अंग्रेजी साहित्य और किताबों की दुनिया एक साथ चलती हुई भी अलग है। एक ओर वह लिखता है और साल दो साल में स्थापित लेखक बन बैठता है। पूरा समाज उसे पढ़ने और बांचने के सुख से वंचित नहीं रहना चाहता। इस शोर में कोई भी उस साहित्य की महत्ता और चरित्र पर ध्यान नहीं देता। बस छपे हुए को बेस्ट सेलर को तमगा दिलाना चाहता है। साहित्य और लेखक की दुनिया बेहद संकीर्ण और सीमित और है तो वहीं बहुत व्यापक ख्ुाला आसमान के समान है। एक दो किताब लिखकर खुद को महान लेखक मानने वाले लेखक भी कम नहीं है। मुगालते में जीना और खुद को दूसरी दुनिया का मानना उनके कई सारे शगलों में से एक हुआ करता हैं।
विश्व पुस्तक मेला दूर नहीं है। इन दिनों युद्ध स्तर पर किताबों के कवर पेज,डिजाइनिंग, पेज सेटिंग आदि के काम विभिन्न प्रकाशन घरानों में चल रहे होंगे। कौन कौन की किताब इस बार के मेले में लाए जा सकते हैं इस रणनीति पर भी काम चल रहा होगा। हर लेखक की यही कोशिश होगी कि पुस्तक मेले में उनकी किताब छप जाए और बेहतर हो। कहीं किसी स्टाल पर उसका लोकार्पण हो जाए तो सोने में सुहागा। हर लेखक अपने अपने अंदाज और शैली में अपने प्रकाशक को लुभाने में लगे होंगे ताििक इस बरस तो किताब आए जाए।
कभी किताब लिखना और छपना एक बड़ी घटना हुआ करती थी। किसी की किताब छपती थी तो लेखक का नाम और सम्मान हुआ करता था। किताब ाके छपना श्रम साध्य और चुनाव का मसला तो होता ही था साथ ही संपादकीय मंड़ल से गुजरना एक स्वीकृति का भाव पैदा किया करता था। हर प्रकाशक के पास एक संपादकीय समूह होते थे जो छपने वाली पांडुलिपि की बारीकी से जांच पड़ताल किया करते थे और तब उस पांडुलिपि को छपने की इज़ाजत मिला करती थी। ऐसे में किसी की किताब बड़े बड़े नामी गिरामी लेखकों, संपादकों के टीम से गुजरा करती थी। यह एक प्रमाणिकता और विश्वसनीयता की पहचान हुआ करती थी। ऐसे में छपना एक चुनौती भी हुआ करती थी।
कुछ वर्ष पहले जब तकनीक और छपाई की मशीनें पुरानी हुआ करती थीं तब यह व्यवसाय कुछ खास लोगों तक केंद्रीत हुआ करती थी। लेकिन जैसे जैसे प्रकाशन तकनीक आया किताबों को प्रकाशन जगत खासे प्रभावित हुआ और बदलाव के दौर से गुजर रहा है। कभी समय था जब पिं्रटिर होते थे और एक एक शब्दों को जोड़ कर छपाई के फाॅमां बनाया करते थे। लेकिन अब प्रकाशन जगत में उन दिक्कतों से निजात मिल गई। इसी के साथ ही प्रकाशकों के केंद्रीत व्यवसाय में विकेंद्रीकरण हुआ और छोटे बड़े प्रकाशकों का जन्म हुआ। इसके साथ ही प्रकाशन की दुनिया में एक क्रांति और गुणवत्ता में गिरावट का सिलसिला भी शुरू हुआ।
लेखकों को छपने की चिंता थीं और प्रकाशक को किताब छापनी थी। यही वह प्रस्थान बिंदु है जहां से प्रकाशक और लेखका का एक नया रिश्ता कायम हुआ। प्रकाशक के लिए लेखक महज किताब रूपी माल था और लेखक के लिए प्रकाशक दुकानदार जहां किताबें बेचनी थीं। कितनी काॅपियां बिका करती हैं इसका अनुमान लेखक को नहीं लगता। प्रकाशक लेखकीय किताब को जैसे तैसे एनकेन प्रकारेण खपाता है। उसपर यदि लेखक राॅयलटी मांगे तो किताब छपने की संभावना समझिए खत्म हो गई। आज हकीकत यह है कि लेखक पैसे देकर किताबें छपवाते हैं। प्रकाशक किताबें छाप कर पचास, सौ काॅपी लेखक को दे देता है। कितनी काॅपी बिकती है इसका हिसाब लेखक नहीं मांग सकता। लेखकीय सत्ता को सबसे बड़ी चुनौती प्रकाशन घराने से मिलती है। दूसरी चुनौती पाठकों की ओर मिलती है।

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