Saturday, December 19, 2015

किताब से अपेक्षा


कौशलेंद्र प्रपन्न
पाठक को एक किताब से क्या उम्मीद होती है? किताबें पाठक को क्या देती है? लेखक अपने किताब से क्या पाता है? और अंततः किताब से समाज को क्या मिलता है आदि सवाल कई बार उठते हैं जिसका जवाब लेखक,आलोचक अपनी समझ और अनुभव से देने की कोशिश करते हैं। एक लेखक के तौर पर लेखक जो कुछ भी लिखता है उसकी पूर्वपीठिका तो बनाता ही है साथ ही वह अपनी लेखकीय योजना में यह भी जरूर शामिल करता है कि इस किताब से वह क्या और किसे अपनी बात रखना चाह रहा है। जब वह एक बार यह तय कर लेता है कि उसकी रचना के पाठक वर्ग कौन हैं? लेखक से पाठक वर्ग की अपेक्षा क्या है? आदि सवालों पर विमर्श करने के बाद लेखन करता है तब उस किताब की प्रासंगिकता और प्रसार ज्यादा से ज्यादा जनसमूह तक होती है। पाठकों को किताब से बहुआयामी अपेक्षाएं होती हैं। यदि बहुअपेक्षाओं मंे से दो चार उम्मीदें भी पूरी होती हैं तो पाठक को छला जाने का भाव नहीं घेरता। वरना किताब खरीदे जाने और पढ़े जाने के बाद यह महसूस हो कि लेखक ने वह बात व विचार स्थापित नहीं कर पाया जिसकी योजना व छवि किताब की शुरुआत में बनाई गई थी। सचपूछा जाए तो लेखकीय संसार को समझने और स्थापित करने में पाठकों को बड़ा हाथ होता है। जो लेखक अपने पाठक को नजरअंदाज करता है तो उसकी किताब पाठकों की आंखों से उतर जाती है।
आज की तारीख में मुद्रित किताबों की बात की जाए तो हजारों और लाखों में छप और प्रसारित हो रही हैं। वहीं टेरा बाइर्ट,पीटा बाईट, जीटा बाइट, योटा बाईट और जियोप बाईट मतदाद में वेब और गैर वेबीय पत्रिकाओं और किताबों का वेबकास्टींग हो रही हों तो ऐसे में पाठकों को सूचनाओं और किताबों के अंबार में अपने लिए मकूल सूचना और विधा का चुनाव एक कठिन काम है। यह भी दिलचस्प है कि किताबों के उस जखीरे से कितनी किताबों के दिन बिहुरते हैं। कितनी किताबों को पाठक मिल पाते हैं? यह एक गंभीर विमर्श का मसला है। तकनीक के इस प्रसाीय युग में प्रकाशन से लेकर वेबकास्ट, टेलीकास्ट, ब्राड कास्ट के युग मंे पाठकों की सीमाओं को भी समझना होगा। समय में कोई आॅल्टरेशन नहीं हुआ है। समय सीमित है। उसी समय में से टीवी, मोबाइल,लैपटाॅप,टेबलेट्स आदि के लिए भी समय निकल चुके हैं। अब कल्पना कीजिए कि एक पाठक के पास इन सब चीजों के बाद कितना समय बचता है। क्या तब समय की इस मारामारी में पढ़ने के समय की पहचान कर सकते हैं। प्राथमिक कक्षाओं के शिक्षक/शिक्षिकाओं से बातचीत के आधार पर कह सकता हूं कि सौ में से बामुश्किलन दस शिक्षक शिक्षण व्यवसाय में आने बाद कुछ पढ़ते हैं। समाज में आमजनता क्या पढती है इसी पड़ताल करें तो पाएंगे कि सुबह करो छपने वाली शाम तक रद्दी के हवाल होने वाले अखबार को पढ़कर यह मान लिया जाता है कि वे पढ़ते हैं। हालांकि खुश होना चाहिए कि कम से कम कुछ पढ़ी जा रही हैं। लेकिन अकादमिक धड़ों से पढ़ने की उम्मीद जब बंधती है तब हमारी अपेक्षाएं बढ़ जाती हैं। हम उनसे गंभीर पठन की आशा करते हैं। लेकिन आमतौर पर पढ़ने वाले पाठकों में किताब ;कहानी,कविता,उपन्यास,निबंध,यात्रा संस्मरण आदिद्ध पढ़ने लालसा अभी बची हुई है।

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