Monday, May 28, 2018

पोजिटिविटी को बचाएं तो बचाएं कैसे




कौशलेंद्र प्रपन्न
हमारी पोजेटिव थॉट और पोजेटिव दुनिया पर हर वक़्त आघात और चोट पहुंचाई जाती है। इसमें हमारा परिवेश, हमारी रोज़दिन की दिनचर्या आदि भी शामिल हैं। इन नेगेटिव आक्रमण से ख़ुद को कैसे बचाएं यह एक बड़ी चुनौतियों में से एक है। हालांकि हमारी अंदर की दुनिया सकारात्मक सोच और चिंतन से लबरेज़ होता है लेकिन जैसे जैसे दिन चढ़ता है वैसे वैसे हमारा घर, परिवेश, ऑफिस आदि हमारी पोजेटिव दुनिया पर चोट करने लगते हैं। फर्ज़ कीजिए आप आप सुबह आपने ख़ुद से वायदा किया कि मैं अपने काम को पूरी शिद्दत से करूंगा। कोशिश करूंगा कि तय समय सीमा में पूरा कर लूंगा लेकिन इसी बीच आपका साथी आपको ऑफिस पॉलिटिक्स में उलझा देता है। आपको कल की घटनाओं में घसीटने लगता है। हम बिना सोचे समझे उसकी बातों में रस लेने लगते हैं। बल्कि कहना चाहिए उसके हांक पर चलने और घिसटने लगते हैं। यहीं हमारी ख़ुद की ताकत और आत्म विश्लेषण की क्षमता कमजोर पड़ने लगती है। दूसरे शब्दों में कहें तो अपने साथ काम करने वाले की नकारात्मक सोच और काम न करने के बहाने के बुने जाल में फंसते चले जाते हैं। शायद इन्हीं छोटी और पतली गली से हमारे अंदर की सकारात्मक सोच और क्षमता को चोट पहुंचाने का काम शुरू हो जाता है। कई बार हम बिना जाने समझे इस मकड़जाल में उलझते चले जाते हैं। जब पूरी तरह से इसमें फंस जाते हैं। तब एहसास होता है कि यह क्या हुआ? हमें तो अपने आप से किए वायदे पूरे करने थे। हमें तो तय समय सीमा में अपना काम पूरा करना था। देखते ही देखते दिन गुज़र जाता है। और हम अपने तय काम को कल के लिए टाल देते हैं। इस प्रकार से भी किसी और के नकारात्मक सोच और काम न करने की प्रवृत्ति को हम अपना चुके होते हैं।
किसी भी समाज में काम ने करने, नकारात्मक सोच वाले लोगों की कमी नहीं है। दोनो ही किस्म के लोग मिलेंगे। एक वह व्यक्ति जो हमेशा ही चार्ज रहता है। उससे बातें करें, मिलें तो लगता है कैसा व्यक्ति है जब भी मिलो हर वक़्त ऊर्जावान रहता है। हम कह भी देते हैं कि आपसे मिलकर लगता है व्यक्ति कभी भी थक नहीं सकता। आपसे मिलकर लगता है कि तमाम नकारात्मक परिवेश के बावजूद भी काम किया जा सकता है। काम ही क्या अपने अंदर की पोजिटिविटी को बचाया जा सकता है। हां ऐसे पोजेटिव सोच वाले साधारण ही इंसान होते हैं। ठीक हमारी तरह ही। बस यदि कोई अंतर होता है कि तो वह यही कि इस प्रकार के लोग हमेशा नकारात्मक सोच वालों के बीच रह कर भी अपनी सकारात्मक दुनिया को हानि नहीं पहुंचने देते। यह काम कोई ज़्यादा कठिन नहीं है लेकिन चुनौतियों भरा ज़रूर है। क्योंकि मानवीय स्वभाव के अनुसार हमें नकारात्मक सोच, गै़र ज़रूरी गॉशिप अपनी खींचती ही हैं। हमें दूसरे की निंदा करना। शिकायत करना, दूसरों में खोट निकालना में परनिंदा सुख मिला करता है। लेकिन हमें मालूम ही नहीं चलता कि कब हम परनिंदा रस में अपनी दुनिया को शुष्क बना बैठे।
हमारे आप-पास की परिस्थितियां और माहौल कई बार हमारी अंदर की दुनिया का भूगोल कैसा होगा यह तय किया करते हैं। हालांकि इस परिवेशीय दबावों से बचा भी जा सकता है लेकिन ज़रूरत इस बात की है कि हमें बेहद चौकन्ना रहना होता है। जो हम अक्सर नहीं हो पाते। यही कारण है कि परिवेशीय तनाव, नकारात्मक सोच हमारी सकारात्मक चिंतन पर चोट करने लगती है। ख़ासकर ऑफिस आदि में काफी आम देखा जाता है। एक व्यक्ति या समूह ऐसो होता है जो महज दिन पूरा करने के लिहाज़ से ही आता है। जो हमेशा काम करने वाले व सकारात्मक परिधि में रहने वाले ऊर्जावान समूह को विफल करने की कोशिश करते हैं। निदा फाज़ली का शेर मौजू है कि ‘‘दो चार किताबें पढ़ कर ये भी हम जैसे हो जाएंगे’’। पहले समूह वाले हमेशा प्रयास करते हैं कि दूसरे समूह के लोगों पर कैसे अपनी छाप छोड़ी जाए। इस प्रयास में वे कुछ भी करने पर उतारू होते हैं। बस उन्हें उनकी निंदा मंडली में शामिल हो जाएं। वहीं दूसरे समूह के लोगों पर हमेशा ख़तरा रहता है कि कब पहले समूह के लेगों का असर उनपर स्थाई न हो जाए।
सकारात्मक और नकारात्मक िंचतन और सोच के बीच हमेशा से ही रस्सा कस्सी रही है। क्या रामायण और क्या महाभारत। या फिर इतिहास के झरोखे से झांक लें। हमें ऐसी बहुत सी घटनाएं मिलेंगी जहां हम देख सकते हैं कि नकारात्मक चिंतन के लोग इसी जुगत में होते हैं कि कैसे कामगर की क्षमता और आंतरिक ऊर्जा को क्षति पहुंचाई जाएं। इस प्रकार के हमले चारें ओर हेते हैं। क्या परिवार के लोग और क्या समाज हर जगह हमें इस प्रकार के संघर्ष की कहानी दिखाई देगी। हम यदि सचेत नहीं हैं। चौकन्ने नहीं हैं तो हमारी पोजिटिविटी को हमेशा ही ख़तरा रहेगा।

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