Tuesday, May 15, 2018

नाम गुम जाएगा...चेहरा ये बदल जाएगा...




कौशलेंद्र प्रपन्न 
वाट इज़ देयर इन द नेम...हिन्दी में कहें तो नाम में क्या रखा है? इन्हीं भावदशाओं और दर्शनों की करीब से पहचानते इस गीत की पंक्तियों को सुनें तो कई कहानियां एक के बाद उभरती चली जाएंगी। उन कहानियों के मज़मून बेशक अगल होंगे लेकिन कथ्य तकरीबन एक सा मिलेगा। कई बार हम व्यक्ति के नाम भूल जाते हैं लेकिन चेहरा देखते ही उसके साथ बिताए पल याद आने लगती हैं। वहीं कुछ के चेहरे सामने भी आए जाएं तो उस व्यक्ति का नाम याद नहीं कर पाते। दरअसल हम उन्हीं चेहरों, नामों को भूल जाते हैं याद याद रखते हैं जिनके साथ या तो सुखद पल गुजारे हैं या फिर जिन्हें याद कर आज को भी खट्टा कर लेते हैं। एक बाद के लिए आज पर अतीत चढ़ने लगता है। ऐसे में हम उन्हें ही याद रखना व मिलने की चाह रखते हैं जिनके साथ हमें सच में खुशी व प्रसन्नता मिलती। वह पल बेशक बेहद अल्पायु वाला ही क्यों न हो। नाम बार बार याद करने के बावजूद भी इस लिए भूल जाते हैं क्योंकि हमारी स्मृतियां उन्हीं सूचनाओं, नामों स्थानों आदि का याद रख पाने में सक्षम होती हैं जिनके साथ हमारी स्मृतियों मजबूत हुआ करती हैं।
नाम बदलने, स्थान बदलने और तस्वीरें बदल देने से कोई व्यक्ति व संस्था अपनी मूल प्रकृति नहीं बदल पाती। बल्कि आम जन की स्मृतियों में बसी यादों, एहसासातों और सपनों को हम नहीं धो सकते। कोई शहर अपना नाम हज़ार बार बदल ले। कोई व्यक्ति अपना नाम कोर्ट के द्वारा अपना नाम बदल ले लेकिन वह अपनों के लिए वही पप्पु, संजय, बबुआ और न जाने क्या क्या ही रहता है। ठीक वैसे ही आप या कि हम किसी भी ख़ास मकसद से किसी शहर, नगर,डगर का नाम बदल दें लेकिन पुरानी स्मृतियों में दर्ज़ नाम ही जबान पर आते हैं। 
हाल में कहें या फिर पहले भी डगरों, नगरों के नाम बदलें का फैशन चला था। वह फैशन था या कि दलगत हित लेकिन डगरों, नगरां, स्थानों के नाम धड़ाधड़ बदले गए। कनॉट प्लेस का राजीव चौक हो जाना, मुगलशराय का दीनदयाल उपाध्याय नगर हो जाना, अकबर रोड़ रातों रात महाराणा प्रताप में तब्दील हो जाना कई बार हैरान करती हैं। हम एक सड़क, पुल, गली, दफ्तर तो रातों रात नहीं बदल पाते। इसमें कई अड़चनें आती हैं लेकिन कैसे तुरत फुरत में हम डगरों, नगरों, चौराहों के नामों की तख़्तीयां बदल दिया करते हैं। कहीं कोई सुगबुगाहट नहीं होती। पिछले माह रामनवमी के ठीक आस-पास कई बड़े बड़े और प्रमुख स्थानों के साइन बोर्ड पर ‘‘राम राम’’ चस्पा कर दिए गए। किसने किया? कौन इसका जिम्मेदार है? कैसे इतनी ऊंचाई पर रातों रात राम राम नाम को चिपकाया गया? आदि। ये सवाल हमें पूछना चाहिए नगर निगम के अधिकारियों से कि जब संज्ञान में आया, किसी ने याद दिलाया तब तो उन साइन बोर्ड को साफ करने, राम राम के नाम को मिटाने की कम से कम कवायद ही सही किन्तु सक्रियाता तो दिखानी ही चाहिए थी। दिल्ली के तकरीबन बड़े और प्रमुख चौराहों, रेड लाइट्स के आस-पास के स्थान, दिशा प्रदर्शक बोर्ड पर राम राम के स्टीकर लगाए गए हैं। उन्हें कब और कौन उतारेगा? कौन इस पर एक्शन लेगा यह तो नहीं मालूम लेकिन इस प्रकार की प्रवृत्तियां शुभ नहीं मानी जा सकतीं। 
नामों और तस्वीरों के बदल जाने से तारीख़ें नहीं बदला करतीं। महज किसी ख़ास व्यक्ति की तस्वीर बदल दी तो क्या उम्मीद करते हैं उस व्यक्ति के अतीत को भी बदल देने का दावा करते हैं? शायद नहीं। शायद हम सिर्फ आज अपने ख़ाम अहम की तुष्टि भर ही करने की कोशिश कर रहे हैं। यही प्रवृत्ति इन दिनों नामों के बदलने और तस्वीरों को बदलकर हम साबित कर रहे हैं। क्यों हमें बार बार इतिहास में जाना चाहिए? क्यों हमें बार बार अतीत से दुखद और चुभन भरी और ठीस देने वाली घटनाएं ही चुन कर आज में लाना चाहिए। क्यों न हम अतीत व इतिहास से सुखद पल चुन कर लाएं। क्यों न अपनी भूलों को वहीं छोड़कर वहां से आगे की दिशाएं तय करने वाली सीखों को अपने साथ ज़ि़ंदा रखें ताकि भविष्य और वर्तमान के बेहतर बना सकें। 
मानवीय स्वभाव है कि हम बार बार सबसे पहले दुखते और चुभते पलों को याद किया करते हैं हमारे साथ ऐसा नहीं हुआ। वैसा नहीं हो सका। उसके मेरे साथ अच्छा नहीं किया। वह कभी मिलता और फोन नहीं करता आदि आदि। शिकायतों से शुरू होने वाले संवाद ज़्यादा सुखद और दीर्घजीवी नहीं हो पाते। नामों को बदलने की बजाए कामों से नामों को मर्ज कर दें तो कितना बेहतर हो। 

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