Wednesday, May 23, 2018

घरों में हो एक रोआन घर...




कौशलेंद्र प्रपन्न 
नागार्जुन ने कभी लिखा था, ‘‘कालिदास सच सच बतलाना तुम रोए थे या अज रोया था?’’ वहीं प्रसिद्ध उपन्यासकार,कवि और लेखक अज्ञेय ने अपनी कालजयी कृति शेखर एक जीवनी में लिखा है, पुरूष कितना दुर्भागा है कि वह रो भी नहीं सकता। मनोविज्ञान और व्यवहारवादी मानते हैं कि रोने से न केवल मन हल्का होता है बल्कि मस्तिष्क की तंतुएं खुलती हैं। वहीं कथा सम्राट प्रेमंचद ने भी रोने को पाक माना है और लिखते हैं कि रोने से मन प्रच्छालित हो जाता है। वह प्रायश्चित का महज साधन भी है। मनोविज्ञान ख़ासकर रोने की प्रक्रिया को मनुष्य के सहज प्रवृति में शामिल करता है। लेकिन व्यवहार में देखें तो पाएंगे कि जब भी किसी को रोते हुए देखते हैं तो कहीं न कहीं हमारा मन भी द्रवित हो जाता है। हम नहीं चाहते कि कोई रोए। यदि हम गैर करें तो हमारा समाजिकरण ऐसा होता है कि किसी भी लड़के या पुरूष को रोते हुए देखते हैं तो छूटते कह देते हैं क्या लड़कियों की तरह या स्त्री की तरह रो रहे हो। मर्द हो मर्द रोते नहीं। यह समाजिकरण कम से कम पुरूषों के साथ ताउम्र साथ रहता है। पुरूष चाहकर भी या कितना भी दुखी हो वह खुल कर रो नहीं सकता। वह कभी फफक फफक कर या फूट फूट कर रो नहीं पाता। यही कारण है कि पुरूष अंदर ही अंदर टूटने लगता है। वहीं महिलाएं रो कर अपना मन शांत कर लेती हैं और पुरूष शांत होकर भी अंदर से बेइंतेहां रो रहा होता है। पुरूष हमेशा ही अपने लोर को छुपाता है। कहीं भीतर से ढह रहा होता है लेकिन समाजिकरण उसे रोने नहीं देती। 
यदि आप रो नहीं सकते तो अंदर से टूटने लगते हैं। मनोविज्ञान तो यहां तक मानता है कि मनोचिकित्सा में रोने, बिलखने जैसे प्रक्रियाएं आम होती हैं। व्यक्ति लंबे समय से कोई दर्द, कोई टीस दबा कर जी रहा होता है। जब सही वक़्त मिलता है तो वह खुलकर और बेझिझक रोने लगता है। आज की तारीख़ में कोई भी ऐसा नहीं है जो तनाव में नहीं है। किसी भी लाइफ ऐसी नहीं है तो दर्द और कंफ्लिक्ट से परे है। ऐसे में व्यक्ति रोता है। रोता तब है कि वह अंदर से बिल्कुल टूट जाता है। लेकिन रोने को इतना कमतर या नीची नज़र से क्यों देखा जाता है। इसके पीछे बच्चों का सामाजिकरण मूल कारण है। बच्चे बचपन से ही घर और स्कूल, दोस्तों और परिवार में यही सुनते हुए बड़े होते हैं कि रोते नहीं। रोने वाले कमजोर होते हैं आदि। 
यदि हम इतिहास में झांकें तो बड़े-बड़े महलों में रानियों के लिए एक कोपभवन होता था। उस कोपभवन का प्रयोग रानियां तब इस्तमाल करती थीं जब दुखी होती थीं। जब उदास होती थीं। या जब राजा से रूस जाती थीं। उस कोप भवन में रानियां उदास या तो रोती रहती थीं या फिर ग़मज़दा पड़ी रहती थीं। मेरा तो मानना है कि जब घर बनाया जाए तो जैसे देवता घर बनाया जाता है। जैसे रसोई घर बनाया जाता है। जैसे नहान घर बनाया जाता है। कितना अच्छा हो कि घर में एक रोआन घर भी बनाया जाए। जिसे जब रोने की ज़रूरत महसूस हो तो वहां जाकर रो आए। हल्का हो जाए। रोना और रूठना, उदास होना मानवीय स्वभाव का हिस्सा है। रोने का मन करे या दुखी हों तो रो लेने में हर्ज़ नहीं है। लेकिन यह दिक्कतें तब पैदा करता है जब आप रोने को आदत में शामिल कर लेते हैं। रेने को आदत न बनाएं बल्कि मन हल्का करने के लिए प्रयोग करें। रोएं तब जब नितांत ज़रूरी हो। हर वक़्त रोना अच्छा नहीं होता। क्योंकि इसी समाज ऐसे रायबहादुर भी हैं जो आपके रोने का सबब जानकर आपका इस्तमाल करने से पीछे नहीं रहेंगे। सहानुभूति के बोल और स्पर्श के चक्कर में आप अपना सब कुछ लुटा देते हैं। 
इतिहास और मानवीय विकास की कहानी बताती है कि आंसूओं को हथियार भी बनाया गया है। इस कर्म में महिलाएं शायद एक कदम आगे हैं। माफी के साथ कहना पड़ रहा है कि कई बार महिलाएं आंसू और रूलाई का इस्तमाल घर में कलह और फसाद पैदा कराने में भी करती हैं। पत्नी का रोना या लोर से भर जाना घर की सुख शांति को खत्म भी कर देती है। इसलिए इस आंसू और रूदन का प्रयोग ग़लत दिशा में ले जाने से बचना प्रकारांतर से रोते हुए के प्रति सहानुभूति बरकरार रखने मे ंहम मदद ही करते हैं। 
जब किसी आदमी को रोते देखते हैं तो वह कम से कम मेरे लिए एक विदारक स्थिति होती है। उसमें भी जब आप किसी आदमी को वो भी उम्रदराज़ को रोते हुए देखना बहुत कष्टदायी होता है। मनोविश्लेषण में माना जाता है कि जब व्यक्ति अपनी पुरानी घटनाओं और अतीत में जाता है तब उसे बहुत सी ऐसी बातें छूने लगती हैं, याद आती हैं जहां तब तो वह रो नहीं सका लेकिन आज जब मौका मिला तो रोकर मन हल्का कर लेता है। रोते सिर्फ कहानी, उपन्यास, कविता के पात्र ही नहीं हैं बल्कि आम मनुष्य रोते हैं जिसकी सुबकी हमें साहित्य में सुनाई देती है। रोने और आंसू को हथियार बनाने से बचना और खुल कर रोना दोनों ही बातें हमारी लाइफ का हिस्सा हैं। 

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