Thursday, May 31, 2018

डर का दर्शन



कौशलेंद्र प्रपन्न
हम सब में एक डर है। हम सब एक भय में जीया करते हैं। शायद पूरी जिं़दगी डर में ही गुजार देते हैं। शायद हम खुल कर अपनी लाइफ नहीं जी पाते। शायद हम दूसरों की इच्छाओं, शर्तां, चाहतों को जी रहे होते हैं। अपनी लाइफ तो बस डर में ही कट जाती है। यदि हम डर के दर्शन में जाएं तो पाएंगे कि मनुष्य न केवल एक सामाजिक सदस्य है बल्कि समाज में रहने के नाते दूसरों की अपेक्षाओं, लालसाओं, उम्मींदों को भी जीया करता है। उसे हमेशा यह डर रहता है कि कहीं फलां नाराज़ न हो जाएं। कहीं फल्नीं रूठ न जाए। कहीं बॉस गुस्सा न हो जाए, कहीं रिश्तेदार हुक्का पानी न बंद कर दें। शायद यही वह डर का दर्शन है जिसमें हमारी पूरी जिं़दगी भय के साथ गुज़र जाती है। हालांकि दर्शन और उपनिषद् निर्भय होने की कामना करते हैं। ऋग्वेद के एक मंत्र में इसका झांकी मिलती है- ‘‘अभयंमित्रादभयंमित्रा...मम्मित्रम् भवंतु’’ इस मंत्र में कामना की गई कि हमें अपने मित्र से भी भय न हो। हमें अपने अमित्र या शत्रु या परिचित से भी भय न हो। हम निर्भय हो सकें। मेरी कामना है कि तमाम विश्व मेरा मित्र हो। हालांकि यह कामना बहुत कठिन नहीं है। लेकिन व्यवहारिक दृष्टि से दखें तो यह संभव नहीं है। क्योंकि हर कोई आपका मित्र नहीं हो सकता। सबकी अपनी अपनी सीमाएं हैं। सब के अपने स्वार्थ हैं। जहां स्वार्थों के बीच टकराहट होगी वहां मित्रवत् भाव बरकरार रखना ज़रा कठिन काम है।
पूरा भारतीय आर्ष ग्रंथ, मनोविज्ञान, दर्शन शास्त्र आदि मित्रवत् व्यवहार करने की वकालत करते हैं। यह अगल बात है कि हम सभी को खुश नहीं कर सकते। ख़ासकर जब आप किसी प्रमुख व शीर्ष पद पर हों तो हर कोई आपसे खुश रहे ऐसा संभव नहीं है। वह होना ज़रूरी भी नहीं। कोशिश तो की जा सकती है लेकिन दावा करना भूल होगा। कोई भी मैनेजर, डाइरेक्टर, सीइओ, या एमडी आदि पूरी कंपनी के हित के लिए कठोर कदम उठाते हैं। इसमें निश्चित ही किसी न किसी की हानि तो होती है। किसी न किसी का मुंह तो उतरेगा लेकिन क्या महज इस भय से कोई निर्णय को टाला जाना चाहिए? क्या आलोचना और निंदा के डर से कोई निर्णय नहीं लिया जाना चाहिए? आदि ऐसे सवाल हैं हां मैनेजमेंट के जानकार मानते हैं कि व्यापक हित के लिए कठोर से कठोर निर्णय भी लिए जाने चाहिए। वहीं गांधी जी मानना था कि यदि एक गांव के बरबाद होने से यदि एक शहर बचता है तो इसमें कोई हर्ज़ नहीं। एक शहर व राज्य के बरबाद होने से देश बचता हो तो राज्य व शहर को बरबाद होने में कोई हानि नहीं है। यही दर्शन और मनोविज्ञान मैनेजमेंट में भी अध्ययन किया जाता है और इन्हें माना जाता है। यदि एक व्यक्ति की वज़ह से कोई संस्था ख़राब हो रही हो। या फिर संस्थान के कर्मियों में निराशा घर कर रही हो, फिर लोग छोड़कर जा रहे हों तो ऐसे में मैनेजमेंट उस एक व्यक्ति को बदलने के निर्णय में पीछे नहीं हटेगी जिसकी वजह से पूरी संस्था पर ग़लत असर पड़ रहा हो। यहां डर नहीं भय नहीं बल्कि तार्किक कदम उठाने होते हैं।
डर व भय कई किस्म के होते हैं। मनोविज्ञान की दृष्टि ये देखें तो इसे फोबिया माना जाता है। कई किस्म की फाबिया का जिक्र मनोविज्ञान में आता है। पानी का डर, अंधेरे का डर, अनजान से डर, ऊंचाई से डर आदि। यह सूची लंबी हो सकती है। ख़ासकर मनोविश्लेषण और मनोचिकित्सा शास्त्र में विभिन्न तरह की फोबिया व भय का ट्रिटमेंट किया जाता है। दूसरे शब्दों में इन भयों का अध्ययन किय जाता है ताकि मनोरोगी को निदान प्रदान किया जा सके। जानकार मानते हैं कि हम न केवल व्यक्ति, वस्तु, परिस्थितियों से ही डरा करते हैं बल्कि सबसे बड़ा डर हमारा दूसरों की नज़र में असफल होना होता है। हम किसी भी कीमत पर फेल स्वीकार नहीं कर पाते। दूसरों की हंसी और दूसरों की नज़र में श्रेष्ठ साबित करने की चाहत कई बार हमें गहरे भय और निराशा में धकेल देती है। यानी हमारे डर व भय का एक सिरा दूसरों की नज़रों में असफल न होने, नकारा न होने की छवि से बचना है। जबकि हमें अपनी लाइफ अपनी शर्तां पर जीना आना चाहिए न कि दूसरों की इच्छाओं को ही ढोते रहे और कंधे, पीठ छिलते रहे।
असफलता का डर, लोगों के हंसने का डर, दूसरों की नज़रों में बेहतर साबित करने का डर आदि ऐसे आम डर हैं जिनसे हमसब रोज़ गुज़रा करते हैं। कोई हंस तो नहीं रहा है? कहीं कोई मेरी आलोचना तो नहीं कर रहा है? कोई मुझ से नाराज़ न हो जाए आदि िंचंताएं हमें डर की ओर धकेलती हैं। बच्चे जब आत्महत्या करते हैं। ख़ासकर दसवीं व बारहवीं के परीक्षा परिणाम के बाद तो इसके जड़ में यही वज़ह है लोग क्या कहेंगे? दोस्त क्या कहेंगे? मम्मी-पाप की उम्मीदें मुझ से बहुत थी। मैं तो नकारा हूं। मुझसे यह भी नही हो सका आदि मनोवृतियां व्यक्ति को डर के गिरफ्त में लाती हैं। जबकि मंथन करने की आवश्यकता यह है कि क्या आप उन लोगों के लिए पढ़ रहे थे? क्या उनके लिए जीवन के लक्ष्य तय कर रहे थे, क्या एक बेहतर इंसान उनके लिए बन रहे थे या आपको एक सफल व्यक्ति बनना ही था। आपको जीवन में अपनी शर्तां पर जीना ही था इसलिए जी रहे हैं।
कोई भी व्यक्ति लाइफ में असफल नहीं होना चाहता। लेकिन सफलता इस बात पर निर्भर करती है कि हम अपनी सफलता के लिए किस शिद्दत से काम कर रहे हैं। कितनी प्लानिंग से योजना बनाकर उसे अमल कर रहे हैं। असफल होने के डर से बचने के लिए हमें अतिरिक्त मेहनत करनी होती है। तब यह डर भी खत्म हो जाता है।


No comments:

शिक्षकीय दुनिया की कहानी के पात्र

कौशलेंद्र प्रपन्न ‘‘ इक्कीस साल के बाद पहली बार किसी कार्यशाला में बैठा हूं। बहुत अच्छा लग रहा है। वरना तो जी ...