Tuesday, May 22, 2018

मुलाकातें जो याद रह जाती हैं




मुलाकातें अक्सर वही याद रह जाती हैं जो सुखद होती हैं। कई बार दुखद मुलाकातें भी भूली नहीं जातीं। दूसरें शब्दों में कहें तो हम सामाजिक होने के नाते अपने जीवन में बल्कि रेज़ भी कई लोगों से मिला करते हैंं। उनमें से कुछ नाम और चेहरे यादगार बन जाते हैं। पिछले दिनों प्रसिद्ध कवि और संपादक अरूण शेतांश से मिलना हुआ। वजह तो कुछ और रही होगी लेकिन दिल्ली में इनसे मिलना पहली दफ़ा हुआ। दिल्ली में ही क्या शायद लाइफ में पहली बार मिले। हालांकि इनसे बातचीत फोन पर तो कई बार हुआ। इनकी रचनाओं से गुजरना भी कई बार रहा। जो कहीं न कहीं मिलने की तड़प को हवा देती रहीं। आख़िरकार अरूण जी की कविताओं से रू ब रू हो सका जो कहीं न कहीं स्मृतियों में दर्ज़ हो गईं। ‘‘वैसी नदी बची है देश में? सिका साफ जल पी सकूं भर पेट अंजूरी से उठा कर...’’ जिस तरह के बिंबों और प्रतीकों का प्रयोग इस कविता में है वह बेहद मौजू और प्रासंगिक है। इस मुलाकात में न केवल कविता पर चर्चा हुई बल्कि साहित्य और साहित्यकारों के रवैया, हिन्दी और साहित्यकारों की जिम्मेदारी पर भी विमर्श हुआ। 
ऐसे ही चलते फिरते भी हम कई लोगों से मिला करते हैं। किसी का चेहरा ही काफी होता है मुलाकात के वक़्त को कम करने के लिए। तो कुछ के बात करने के अंदाज़ और शैली बेहद ऊब पैदा करती हैं। इच्छा तो यहां तक होती है कि कैसे यह पल और जल्द सिमट जाए। कब इनसे छुटकारा मिले आदि। जब एक मुलाकाती व्यक्ति महज अपनी प्रसिद्धी, उपलब्धियों का गिनाने लगता है तब शायद घोर निराशा होती है कि क्या यह मुलाकात सच में मिलने के लिए है या उपलब्धियों को दर्ज़ कराने और अपनी उपस्थिति का एहसास कराने के लिए है। ऐसे में आत्मप्रशंसा के तत्व मुलाकात को कमतर कर देता है। यदि प्रसिद्धी है तो, उपलब्धि है तो वह ख़दु बोला करती है। उसी ख़ुद ही बोलने दीजिए बजाए कि आपको बोलना पड़े। कई बार आप भी ऐसे लोगों से मिले होंगे जिनसे दुबारा मिलने से पहले हज़ार बार सोचा करते हैं कि उफ!!! दुबारा उनकी सारी कहानी सुननी पड़ेगी। दुबारा जनाब बताएंगे कि कैसे फलां सम्मेलन, पुरस्कार में उन्हें तालियां मिली थीं। कैसे किसने उनके लिए शब्दों की लड़ियां लगाई थीं आदि। ऐसे में सुनने वाला बचता है। 
मुलाकातें कई बार इतनी गहरी होती हैं कि जिन्हें बार बार याद कर सुखद एहसास से भर जाते हैं। पिछले दिनों ऐसी ही मुलाकात बुर्ज़ ख़लिफा में शालीग्राम से मिलकर हुआ। लाइन में खड़ खड़े यूं ही बातचीत का सिलसिला निकल पड़ा और उन्होंने बताया कि किस प्रकार वे आज भी हिन्दी और भोजपुरी को बचाए हुए हैं। उनके साथ खड़ा उनका पंद्रह वर्षीय लड़का न तो हिन्दी बोल-समझ सकता था और अंग्रेजी। वह सिर्फ फ्रैच बोल-समझ सकता था। उन्होंने बताया कि उनकी तीसरी पीढ़ी भारत से माइग्रेट कर गई थी। लेकिन आज भी उन्हें भारत से लगाव है। हिन्दी और भोजपुरी से जुड़ाव महसूस किया करते हैं। उस मुलाकात में देश दुनिया की बात हुई। बात हुई भारतीय संस्कृति की। वो तो चाहते हैं उनका बच्चा भारतीय संस्कृति को जाने समझे लेकिन वो लाचार हैं। ऐसी ही एक और मुलाकात लेह में हुई। जगह भी सार्वजनिक कॉफी शॉप। बातों बातों में मालूम चला वो जनाब स्टेनजिन नेशनल स्कील इंडिया के नेशनल निदेशक हैं। बातों से ही तो हम किसी के बारे में जान पाते हैं। पहचान की एक कड़ी कभी तो खोलनी ही पड़ती है। हालांकि सार्वजनिक स्थानों, रेल, मेट्रो आदि में घोषणा की जाती है कि अपरिचितों से बात न करें। उनका दिया खाना न खाएं आदि। हालांकि सच है यह भी कि ऐसी कई घटनाएं हुईं हैं जिसमें हमें नुकसान भी उठाने पड़े हैं। लेकिन इस हक़ीकत से मुंह नहीं फेर सकते कि इन्हीं अपरिचितों में कुछ रिश्ते भी गहरे बन जाते हैं। 
कहने को तो पूरा विश्व ही परिवार हो चुका है। हर घर, हर देश हमारा घर है। लेकिन सच्चाई इससे बिल्कुल उलट है। हम अपने ही बनाए औरे में रहा करते हैं। हम खुलेंगे नही ंतो जुड़ेंगे कैसे। जब जुड़ेंगे नहीं तो वैश्विक परिवार में शामिल कैसे होंगे। आज हम ग्लोबल गांव के नागरिक हो चुके हैं। हमें वैसे ही बरतने भी हांेगे। एक दूसरे की संस्कृति, भाषा, बोली, संगीत आदि के साथ ही व्यक्ति को भी स्वीकार करने होंगे। यह तज़र्बा भी मजेदार रहा कि कुछ पाकिस्तानी परिवारों से भी मुलाकात हुई। वे रावलपिंड़ी के रहने वाले थे। जावेद की पत्नी ने पूछा भारत में आपका क्या रूटीन होता है? आपकी पत्नी ऑफिस जाती है? घर में कौन कौन हैं आदि। उनके सवालों में कई गिरहें थीं। जिन्हें वे समझना चाहती थीं। हमारे बारे में मीडिया और राजनेता से हटकर समझने की ललक थी। 
अरूण जी से ही यह मुलाकाती कहानी शुरू हुई थी। क्यों न उन्हीं पर खत्म की जाए। उनसे यदि कोई रिश्ता था तो वह मानवीय मूल्यों, साहित्य के दरकार और क्योंकि वे भी संवेदनशील रचनाकार हैं जिनकी बदौलत हम मिले। पहली बार मिले लेकिन एक पल के लिए भी यह एहसास नहीं हुआ कि यह हमारी पहली मुलाकात थी। आप भी कई लोगों से मिलते हैं। बल्कि मिलेंगे। मिलिए और मुलाकात यादगार ज़रूर बनाएं।   

No comments:

शिक्षकीय दुनिया की कहानी के पात्र

कौशलेंद्र प्रपन्न ‘‘ इक्कीस साल के बाद पहली बार किसी कार्यशाला में बैठा हूं। बहुत अच्छा लग रहा है। वरना तो जी ...