Wednesday, May 9, 2018

ये कैसी इबादत है लला!!!




कौशलेंद्र प्रपन्न 


ये कौन सी पाठ पढ़े हो लला मन लेत हौ देत छटाक नहीं...। कुछ ऐसी ही स्थिति कई बार राजनीतिक लोगों की ओर से आने वाले बयानों में लगता है। हाल ही में हरयाण के मुख्यमंत्री ने कहा और बाद में अपने वक्तव्य से में काफी ऑल्टर भी किया जैसा कि अकसर राजनीतिक लोग किया करते हैं। मसलन मेरा यह मतलब नहीं था। मेरे बयान को तोड़मरोड़ कर पेश किया गया आदि। तो बात हो रही थी इबादत की। फरमाया गया कि खुले में इबादत यानी नमाज़ की इज़ाजत नहीं होगी। तर्कोंं से पुल भी बांधे गए। अपनी बात व फरमान को सही ठहराने के लिए विभिन्न किन्तु परंतु का भी सहारा लिया गया। इबादत किसी की भी की जाए। पूर्जा अर्चना कोई भी करे। रत जग्गा किसी भी समुदाय की ओर से आयोजित की जा रही हो। रात भर जागरण कोई भी गाए। इसमें किसी को क्यों और कब आपत्ति हो सकती है? कब कोई अपनी आवाज़ कोर्ट व थाने में उठाता है? यह तब विरोध और बंद करने की मांग उठती है जब समाज के बुढ़े, बच्चे, बीमार, परीक्षार्थी प्रभावित होते हैं। कायदे से समय और स्थान को ध्यान में रखा जाना चाहिए इसमें किसी को भी कोई गुरेज़ नहीं होना चाहिए। 
इस बयान से पहले भी कई बार कोर्ट की ओर से आदेश आ चुके हैं कि रात ग्यारह के बाद कहीं कहीं दस बजे के बाद, म्यूजिकख् इबादत की अनुमति नहीं होगी। लेकिन हम जिस समाज में रहते हैं वहां यह भी देखते हैं कि खुलआम रात की पार्टियां, पूजा अर्चना, नाच गाने आदि धड़ल्ले होते हैं। कई लोग समय सीमा तोड़ने में अपनी शान समझते हैं। जबकि उन्हें यह भी सोचना चाहिए कि आस-पास रहने वाले बीमार, बुढ़े व बच्चे को कितनी दिक्कत होती होगी। आज आप कर रहे हैं कल आपको ही देखकर आपका पड़ोसी करेगा। उसके पास कौन से पैसे की कमी है। 
पूजा-अर्चना, नमाज़ आदि अत्यंत व्यक्तिगत और एकांत की साधना एवं कर्म है। एक बात समझनी होगी कि जो हमारा ऐकांतिक कर्म है उसे इतने खुले और प्रदर्शन के तर्ज़ पर करने से क्यां गौरव और अपनी मान्यताओं को मनवाने की ज़िद रखते हैं। हमें हमारी निजी मान्यताओं, सांप्रदायिक उत्सवों एवं आयोजनों में वैश्विक और समष्टि की सोच रखनी चाहिए। हालांकि यह कहना और करना बेहद मुश्किल है। किन्तु शुरू के कुछ मुश्किलातों को यदि पार कर गए तो नई पीढ़ी के लिए आदर्श हो सकते हैं। हज़ारों बच्चों, बुढ़े की दुआएं भी साथ होती हैं। जिन्हें आपने अपनी रात भर की चीखों, फिल्मी तर्ज पर पूजा-अर्चना, नाच-गान के शोर से निज़ात दिला दी। 
दरअसल शुरू कौन करे। कौन आगे आए और कह सके हमें मंदिर व मस्जिद में ही इबादत करनी है। यदि जगह है तो तमाम उत्सवों को तय परिसर में ही संपन्न किया जाएगा। इसके लिए किसी न किसी को तो लीड लेनी पड़ेगी। जो चुप्प हैं, ख़ामोश तामाशे में शामिल हैं उनसे बदलाव की उम्मीद करना बेईमानी होगी। यदि समाज में इस प्रकार की साम्प्रदायिक आयोजनों, सार्वजनिक उत्सवों, पूजा-अर्चना, इबादतों आदि कम करना है तो किसी ने किसी को तो आगे आना होगा। कब तक हम हमज सरकार, न्यायपालिका, कार्यपालिका आदि से ही उम्मीद करते रहें कि अब लोकतंत्र के चारों खम्भों के ज़रिए ही बदलाव घटित हो सकता है। ऐसे स्थिति पर नज़र डालें तो पाएंगे कि समय समय पर सरकार बेशक आंखें मूंद ले लेकिन न्यायपालिक बड़ी ही शिद्द से अपनी जिम्मेदारी निभाती है। इसी का परिणाम है कि साम्प्रदायिक पूजा स्थलों के नाम पर जिस प्रकार से अवैध सरकारी भूमि को हथियाया जाता है इस बाबत कोर्ट कई बार निर्देश जारी कर चुकी है। मंदिर व मज़ारों के नाम पर कई राज्यों, शहरों में महत्वपूर्ण स्थलों पर अवैध निर्माण कर साम्प्रदायिक पूजा-अर्चना स्थल में तब्दील किया जा चुका है। 
इबादत तो बिना किसी शोर और प्रपंच के किए जाते हैं। सर्वेश्वर दयाल सक्सेना ने की एक कविता की पंक्ति उधार लेकर कहूं तो ‘‘प्रभू जी जब हारा हूं तब न आइए...’’ यहां तो मंज़र यह है कि जब भी उत्सव करने का मन करता है। मनोरंजन का माहौल बनाना होता है तो रत जग्गा का आयोजन खुले में सड़क और गली को घेर कर किया करते हैं। 

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