Thursday, May 24, 2018

हक़ीकत ए तालीम




आज की तारीख़ में उपयुक्त कैडिडेट पाना बेहद चुनौतियों भरा काम है। यदि आप बाजार में बेहद कैडिडेट की तलाश कर रहे हैं तो महज डिग्रीधारियों से आपका काम नहीं चलने वाला। डिग्रियां सभी के पास हैं। कोई नेट, पीएचडी, तो कोई एम एड भी हैं। लेकिन जब हक़ीकत से रू ब रू होते हैं तब घोर निराशा होती है। क्योंकि डिग्री तो है लेकिन डिग्री के अनुरूप उनके पास न तो समझ है और न ही अपेक्षित योग्यता। कहने को पोस्ट ग्रेजुएट हैं। प्रशिक्षकीय डिग्री भी हासिल की हुई है। जब आप ऐसे कैडिडेट की प्रोफाइल से गुज़रते हैं तो एक उम्मीद बंधती है कि कम से कम एक तो ऐसा प्रतिभागी मिला जो आपकी अपेक्षाओं पर खरा उतर रहा है। लेकिन जब उससे बातचीत करते हैं, कुछ गहरे में उतरते हैं तब हैरानी इस बात की होती है कि डिग्री अपनी जगह है और विषयी समझ बिल्कुल दूसरे छोर पर है। तब कई बार चिल्लाने का मन करेगा कि यह कैसी पढ़ाई है? कैसी तालीम दी जा रही है जिसमें डिग्रियां तो दी जा रही है किन्तु तद् तद् डिग्री के स्तरीय ज्ञान और समझ नहीं है। मालूम हो कि दिल्ली विश्ववद्यिलय में बीए या एम ए जिस खर्च हो जाते हैं उससे कम से कम चार गुणा अधिक खर्च पर निजी कॉलेज और विश्वविद्यालय में इन्हीं डिग्रियों को हासिल करने के लिए हमारे आज के युवा भीड़ लगा कर खड़े हैं। कहीं भी योग्यता और समझ की चिंता नज़र नहीं आती। 
हाल ही में विभिन्न पोस्ट के लिए कैंडिडेट के इंटरव्यू में बैठने का मौका मिला। बॉयोडेटा क्या ही बेहतरीन तरीके से बनाए गए थे। बॉयोडेटा को अच्छे से मैनेज कर और प्रेजेंटेबल भी बनाया गया था। जिसमें तमाम डिग्रियां, डिप्लोमा, विभिन्न सेमिनारों, वर्कशॉपों की लंबी सूची बनाई गई थी। उन बॉयोडेटा में कई तरह की हॉबी का भी ज़िक्र था। प्रसन्नता इस बात की थी कि कम से कम संस्थान को एक योग्य और सही कैंडिडेट मिल सकेगा। जो आगे चल कर संस्थान के मिशन, विज़न, और लक्ष्य को हासिल करने में अपनी समझ और योग्यता का इस्तमाल करेंगे। लेकिन जब बातचीत का सिलसिला निकला तो एक एक कर पिछड़ते चले गए। मुझे उनके पिछड़ने का दुख जितना नहीं था उससे कहीं ज़्यादा उनके पिछड़ने की वज़हों की पहचान कर कोफ्त से भर रहा था। अफ्सोस इस बात का था कि जिन कॉलेजों, विश्वविद्यालयों की पहचान अपनी शैक्षिक गुणवत्ता के लिए था वहां से ऐसे ऐसे छात्र बाजार में आ रहे हैं। ताज्जुब तो इस पर हुआ जब उनकी आंखों में इसका इल्म भी नहीं दिखा कि उन्हें दुख है कि जवाब नहीं दे पा रहे हैं। उन्हें इस बात का अंदाज़ा तक नहीं लगा कि जो सवाल उनके पूछे जा रहे हैं उसे वे समझ भी नहीं पा रहे हैं। साहित्य में भाषा व शब्द की तीन ताकतों की चर्चा होती है- अभिधा, व्यंजना और लक्षणा। वे प्रतिभागी इन तीनों की भाषायी जादू से बेख़बर थे। जबकि वे जिन पोस्ट के लिए आए थे वह भाषा विशेषज्ञ के लिए ही था। 
यदि आप शिक्षा जगत में है। उसमें भी स्कूली शिक्षा से आपका साबका रहा है तो आपसे इतनी तो अपेक्षा की ही जा सकती है कि आपने नेशनल करिकुलम फ्रेमवर्क का नाम सुना हो, आपने कभी भूलवश ही सही इस एनसीएफ को उलट पलट कर देखा हो, या फिर कहीं किसी से चर्चा सुनी हो या फिर अख़बारों, पत्रिकाओं में आलेख ही पढ़े हों। यदि आपने इंटरव्यू बोर्ड इसकी उम्मीद रखता है कि आपको एनसीएफ के बारे में मालूम होना चाहिए तो इसमें कोई अचरज की बात नहीं होनी चाहिए। लेकिन कुछ उत्तरों को पढ़ और सुनकर शिक्षण प्रोफेशन से ही विश्वास उठने सा लगा। सुबह उठकर अपने बड़ों का प्रणाम करना चाहिए, पैर छूना चाहिए, स्कूल नहा धोकर जाना चाहिए यह एनसीएफ भाषा-शिक्षण संबंधी सिफारिफ करता है। शिक्षा से जुड़े किसी भी व्यक्ति को इन उत्तरों पर हंसी से ज़्यादा उन संस्थानों से शिकायत होगी जहां से ऐसी समझ लेकर बच्चे बाजार में आ रहे हैं। 
दरअसल शैक्षिक संस्थान भी आज की तारीख़ में महज बाजार को तवज्जो देते हुए कोर्स और कोर्स के खेवनहारों को रखते हैं। जहां की फैकेल्टी स्वयं डिमोटिवेटेड होगी, ख़ुद ने कभी शोध पत्र न लिखे हों, जिनकी ख़ुद की स्कूली समझ पतली है वे किस प्रकार की शैक्षिक समझ बच्चों में संक्रमित करेंग इसका अनुमान लगाना ज़रा भी कठिन कठिन नहीं है। जब से बहुवैकल्पिक सवालों और परीक्षा का ढर्रा निकल और चल पड़ा है तब से विषयनिष्ठ समझ दूर की कौड़ी होती गई है। भाषा और शिक्षा शास्त्र में तो और स्थितियां चिंताजनक होती गई है। बच्चों को पांच वाक्य लिखने को दिया जाए तो उसमें साठ से सत्तर फीसदी ग़लतियां मिलेंगी जो व्याकरण और वर्तनी की दृष्टि से उचित नहीं है। वहीं तथ्य और समझ के स्तर पर भी उनकी अभिव्यक्ति की क्षमता का अंदाज़ा लगाया जा सकता है। 

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