Friday, May 11, 2018

विकसने में संघर्ष बहुत है






कौशलेंद्र प्रपन्न 
सच हम नहीं, सच तुम नहीं, सच है हमज संघर्ष ही...संघर्ष से बच कर जीए तो क्या जीए तुम या कि हम...कवित की इन पंक्तियों को जगदीश गुप्त से उधार ली है। इन पंक्तियों में जिस प्रकार की चिरगारी है वह हमें जीवन में आगे बढ़ने में मदद करती है। बगैर संघर्ष में दुनिया का कोई भी व्यक्ति, संस्था, कंपनी आगे नहीं बढ़ी होगी। एक बात तो तय हो गई कि यदि जीवन में आगे बढ़ना है, विकसना है तो हमें किसी न किसी स्तर पर किसी न किसी रूप में संघर्ष करना ही पड़ता है। हर व्यक्ति और समाज के अनुसार उसके संघर्षों की प्रकृति निर्धारित होती है। किसी का संघर्ष चौदह वर्ष का होता है तो किसी का अल्पायु। लेकिन हरके जीवन की यह कहानी बड़ी पुरानी और सच्ची है कि संघर्ष तो करना ही पड़ा है। यदि हम अपने परिवेश पर नज़र डालें तो एसे कई व्यक्ति मिलेंगे जिन्होंने अपने जीवन में काफी संघर्ष किया। तब जाकर आज वो जीवन की सफलता के झंड़े लहरा रहे हैं। वहीं कुछ ऐसे भी लेगे मिलेंगे जिन्होंने मेहनत तो बहुत की लेकिन उसके अनुरूप उन्हें सफलता व सुख नहीं मिला। यदि ऐसे संघर्षां की कहानियों के तानाबाना करीब से देखें तो संभव है हमें ऐसी कोशिशें भी दिखाई देंगी जो महज दूसरों को दिखाने और प्रभावित करने के लिए किए जा रहे थे। वे अपनी संतुष्टि के लिए प्रयास नहीं कर रहे थे। यहां यह हक़ीकत समझ लेनी चाहिए कि हमें अपनी नज़रों और कोशिशों में सच्चे और ईमानदार होने की आवश्यकता है न कि औरों की नज़रों में। यह भी दिलचस्प है कि हम अपने जीवन का एक बड़ा हिस्सा दूसरों से अच्छे, लायक, आज्ञाकारी आदि के प्रमाण पत्र बटोरने में ज़ाया कर दिया करते हैं। जबकि हमें इस ओर ध्यान देना लाजमी होगा कि हम अपनी निगाहों में ईमानदार और प्रयास करने वाले हैं या नहीं। 
जब केई व्यक्ति, समाज, कस्बा, नगर विकसने की राह पर होता है तब कई तरह के संघर्षां, आलोचनाओं, निंदाओं और प्रोत्साहनों से गुज़रना होता है। इसे सहज मानवीय और विकास की प्रवृति के रूप में समझना चाहिए। जब कोई कस्बा व गांव विकास करता है तो पुरातन मान्यताओं वाले इसका विरोध परंपरा, मान्यताओं आदि के हवाले से उस विकसने की प्रक्रिया को नकारते हैं। जब कोई व्यक्ति विकसने और संघर्ष के पथ पर आगे बढ़ता दिखाई देता है तब हमारे ही आस-पास के लोग, सहयात्री हमारे प्रयासों की प्रशंसा करने, प्रोत्साहित करने की बज़ाए आपके सपनों, कोशिशों को नकारने और हतोत्साहित करने का प्रयास करते हैं। ऐसे वे क्यों करते हैं इनके वज़हों मानवीय स्वभावों में से एक है। इसे हम मानवीय विकसने की प्रक्रिया में बाहरी संघर्ष के रूप में पहचान सकते हैं। इस किस्म के बाहरी संघर्षों में साथ के लोगों की संवेदनात्मक, भावनात्मक, मनोवैज्ञानिक आदि दबावों को रख सकते हैं। वे कई बार स्वभावतः ऐसे करते हैं। उन्हें यह कबूल नहीं हो पाता कि उनके सामने का व्यक्ति विकसने की कोशिश कर रहा है। उन्हीं की नज़रों के आगे फलां व्यक्ति कैसे अपनी कॉम्यूनिकेशन, मैनेजमेंट,प्रेजेंटेशन आदि स्कील कैसे डेवलप कर सकता है। आदि कुछ बाह्य भय भी हमारे विकसने के राह में संघर्ष के रूप में मिला करते हैं। हमें इस प्रकार के संघर्षां से भी लड़ना और ख़ुद को बाहर निकालना होता है। 
कभी हमने बीज को जमीन से बाहर निकलते शायद न देखा हो। कभी देखने की कोशिश करें तो समझना आसान हो जाएगा कि एक बीज को जमीन से बाहर आने में कितनी मेहनत करनी पड़ती है। दूसरे शब्दों में एक नवजात बच्चे में जनमने में कितने संघर्षां का सामना करना पड़ता है। तब जाकर बच्चा इस दुनिया में आंखों खोलता है ऐसी दुनिया जो व्यक्ति के विकसने को संहर्ष स्वीकारने की बजाए इसबात में सुख की तलाश करता है कि वह अभी तक संघर्षशील है। । अभी तक प्रयासरत है। हालांकि इस हक़ीकत से भी इंकार नहीं किया जा सकता कि हमारे फैलों ट्रेवलर में ऐसे भी चाहने वाले होते हैं जो हमारी विकसने की यात्रा में प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से शामिल होते हैं। उन्हें देखने और महसूसना अच्छा लगता है कि उनके बीच का कोई व्यक्ति प्रयास कर रहा है। उन्हें आपके विकसने में मदद करने में प्रसन्नता होती है। 
हमें यदि विकसना है तो बाहरी और आंतरिक संघर्षों से लड़ना और जीतना ही होगा। अभी हमने बाहरी संघर्षां की तो बात की लेकिन आंतरिक संघर्षं की चर्चा रह गई। इसे भी वलते चलते समझते चलें तो बेहतर होगा। आंतरिक संघर्षां मे ंहम अपनी क्षमताओं, कमजोरियों, अपनी सीमाओं, अपने कम्फर्ट जोन से बाहर निकलने आदि से डरते हैं। हमें अपनी सीमाओं और उड़ान का एहसास नहीं होता कि मेरी ख़ुद की क्षमता व सामर्थ्य कितनी है। जब हम अपनी क्षमताओं को पहचान लेते हैं तब रिस्क और संघर्षोंं से जल्दी और समुचिततौर पर बाहर निकल पाते हैं। नहीं तो हमारी अधिकांश ऊर्जा आंतरिक और बाह्य संघर्षां से लड़ने और उबरने में खत्म हो जाती है। जब हमें संघर्षां के उपरांत मिली सफलता का आनंद लेना होता है उस वक़्त भी जीवन संघर्षों में ही बसर करना हमारी मजबूरी हो जाती है। 

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