Friday, May 4, 2018

लिखते कैसे हैं वो




कौशलेंद्र प्रपन्न
यह सवाल बेहद दिलचस्प और दरपेश है। बल्कि कहना चाहिए यह सवाल अकसर लेखकों, पत्रकारो कवियों आदि से पूछा जाता रहा है। इस सवाल के जवाब में मेरे ख़्याल से काफी कुछ कहा और लिखा जा चुका है। पिछले दिनों इन्हीं सवालों से रू ब रू होना पड़ा। साथ काम करने वालों ने बड़ी हैरानी से पूछा कि आप इतने और रोज़ कैसे लिख लिया करते हैं। क्या कोई मशीन है? वो कौन सी ताकत है जो रोज़ लिखा ले जाती है आदि। इन सवालों से बड़े-बड़े लेखक, पत्रकारों एवं कवियों आदि को अपने समय में सामना करना पड़ा है। सबने अपने अनुभवां के आधार पर जवाब भी देने की कोशिश की है।
पहले पहल तो लेखक,कवि,पत्रकार आदि कोई दूसरी दुनिया का जीव नहीं होता। वह भी इसी समाज में हम सब के साथ रहा करता है। जैसे अन्य लोगों को जीवन में तरह तरह के अनुभवों से गुजरना होता है वैसे ही एक लेखक भी उन अनुभवों को जीता, पकता, बेचैन होता है। अंतर बस इतना है कि सामान्य व्यक्ति अपने अनुभवों, निजी एहसासातों को अपने में ज़ज्ब कर जीता है। किसी से कहता भी है तो वह आत्म पीड़ा के तौर पर रो गा कर चुप हो जाता है। लेकिन एक लेखक, कवि जिन हालातों से गुजरता है। उन्हें बड़ी शिद्दत से महसूसकर शब्दों में बांधने की कोशिश करता है। वह प्रयास करता है कि जो मेरे साथ गुजरा है, वह दुनिया के किसी न किसी कोने में किसी की भी निजी टीस हो सकता है। मैं जैसा महसूस कर रहा हूं। मैं जैसे इन हालातों से निकलने की कोशिश कर रहा हूं। उन औजारों से क्यों न औरों को भी वाकिफ कराउं। क्या पता औरों को मेरे अनुभव व कहानी से कुछ रोशनी मिले। क्या मालूम मेरा लिखना किसी की ज़िंदगी को बेहतर राह पर ला पाएं। लेखकों, कवियां आदि का मकसद लेखन से हमज आत्मतुष्टी, आत्मसंतोष और प्रसिद्धी हासिल करना ही नहीं होता बल्कि वह वैश्विक स्तर पर अपने तजर्बों को बांटने में विश्वास करने लगता है। इन्हीं ताकतों के आधार पर वह कुछ लिख पाने की कोशिश करता है।
विचारों, भावनाओं को बांध पाना, रोक सकना या फिर दुबारा जीना कोई आसान काम नहीं होता। बल्कि इस शब्द साधना में समय, श्रम, धैर्य, अभ्यास आदि बहुत काम करते हैं। बिना अभ्यास, प्रयास, चिंतन, पुनर्चिंतन, विचारों को शब्दों में ढालने के धर्यपूर्ण साधना के कोई लेखक नहीं लिख सकता। लिखने के लिए जिन चरणों के बारे में स्थापित और प्रसिद्ध लेखकों ने अपनी राय रखी है यदि उन पर नज़र डालें तो वे कुछ इस प्रकार की हो सकती हैं-
विचार, अनुभव, घटना, कोई वाकया आदि को देखना, अनुभव करना, उन अनुभवों की गहराई को महसूस करना, उन्हें तटस्थ होकर निरीक्षण करना, जहां भावनाओं की आवश्यकता हो वहां भावनाएं, संवेदना को प्रयोग करना, टाइम मैनेजमेंट, थॉट मैनेजमेंट, आकार प्रकार, शैली, फारमेट को चुनाव और अंत में भाषा, शब्दों आदि का चयन। इन्हीं सोपानों के ज़रिए कोई भी लेखक,कवि, पत्रकार आदि लिखा करते हैं।
हमें अपने विचारों को वो भी इतने चंचल होते हैं जिन्हें रेक पाना, बांध पाना बेहद श्रम साध्य और अभ्यास की मांग करता है आदि को ठहकर देखना,महसूसना तो एक प्रक्रिया है। लेकिन अब लेखक को महसूसे हुए अनुभव को कैसे, कब, कहां, क्यों प्रसारित करना है, क्यों लिखे कवि,लेखक, पत्रकार इन सवालों का जवाब ख़ुद को पहले देना होता है। तब तलाश की जाती है कहां, किसके लिए लिखना है।
क्योंकि कई बार नए लेखकों की शिकायत होती है कि उनके लेख छपते नहीं। संपादक लौटा दिया करते हैं। आदि इन सवालों का हल यही है कि लिखने से पहले किनके लिए, कब,कहां लिखना चाहते हैं उसके फारमेट को ध्यान में रखना होगा। उस पत्र-पत्रिका की प्रकृति और पन्नों के स्वरूप और स्थान को भी लिखने से पहले ध्यान में रखना होगा तब आपकी रचना अस्वीकृत नहीं हो सकेगी। इस काम के लिए अभ्यास, अध्ययन, पैनी नज़र और समय की दिशा पर पकड़ बनाना बेहद ज़रूरी होता है। इन्हें नकार कर या नज़रअंदाज़ कर कोई लिख नहीं पाएगा।
लिखने से पहले हज़ार बार सोचना भी मानिख़ेज होता है कि क्यों लिखना है, किसके लिए लिखना है आदि। इससे क्या हासिल होगा। इसलिए समाज में ऐसे भी लेखक और कवि आदि हैं जो निरंतर लिख रहे हैं लेकिन कहीं छपने की चाह उन्हें नहीं होती। मेरा ऐसा मानना है कि यदि लेखक कवि, पत्रकार आदि लिख रहे हैं तो उस पर नागर समाज का हक है। हक़ यह भी है कि लेखक, कवि आदि जिस समाज में रह रहे हैं वे भी नागरीय जिम्मेदारी के तहत लिखें और समाज में अपने शब्दों के ज़रिए अपनी राय रखें। क्या पता एक प्रतिशत भी असर आपके लिखने के होता है तो लेखकीय प्रतिबद्धता का एक अंश पूरा हो जाता है।
लिखने से पहले, लिखने के बाद अपने विचार, अनुभव,शब्दों के चुनाव, प्रस्तुती आदि पर काफी काम करने की आवश्यकता होती है। यदि कोई लेखक इनसे बच बचाकर लिखता है तो वह कहीं न कहीं लेखकीय जवाबदेही से न्याय नहीं करता।

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