Thursday, January 31, 2019

आत्म प्रशंसा करिहहूं सब कोई


कौशलेंद्र प्रपन्न
पूरा का पूरा हॉल तालियों से गूंज रहा था। तालियों की इस अनुगूंज में उनके चेहरे की खिलखिलाहट और मंद मंद मुसकान पूरे हॉल में लोगों को अपनी ओर खींच रही थीं। आत्म प्रशंसा का दौर एक के बाद एक ज़ारी रहा। सब के सब अपने तमाम शब्दों को झांड़ पोछकर सहेजने और फेंकने के लिए उतावले लग रहे थे। अपनी अपनी शब्दावली को खंघालकर नए नए प्रशंसा के शब्द और वाक्यों की बौछार कर रहे थे। इस आत्मप्रशंसा के खेल में कोई भी पीछे नहीं रहना चाहता था। जो पीछे रह गया वह तो छूट ही गया गोया। कोई क्यों पीछे रहे। शब्द ही तो फेंकने थे। उन्हें बताना ही तो था कि मैं आपको कितना चाहा करता हूं। आपके लिए कितनी तत्परता से प्रशंसा के शब्द और वाक्य तलाशा करता हूं। देखिए आपके लिए ही तो इतने सारे आत्मप्रशंसा के शब्दों की माली बनाई है। अब तो प्रसन्न हो जाएं प्रभू।
प्रभू मंद मंद मुसकुरा रहे थे। उनकी मुसकान में पूरा सभा अपनी मुसकान को मिलाने की कोशिश कर रही थी। प्रभू प्रसन्न थे। अपनी इन्हीं आंखों से तमाम मंज़र को पी रहे थे। खुश थे कि उनके कार्यक्रम में इतनी सारी जनता आई है। आई ही नहीं बल्कि उनके लिए कुछ क्या बहुत कुछ कह रही है और कहना चाहती है। जिन्हें कहने का मौका नहीं मिला उन्हें मलाल था कि उन्हें कहने गुणगान का अवसर न मिल सका। हत्भाग्य उनका कि वो प्रभू का कीर्तन नहीं कर सके।
सभा भरी थी। भरी थी बहुत कुछ कहने की। अपने उद्गार प्रकट करने के लिए मचल रही थी। प्रभू मंच पर विराजमान देख-सुन रहे थे कौन कौन आया, कौन नहीं आया। किसके साथ आगे क्या करना है इसके समीकरण में कभी कभी प्रभू खो जाते। लेकिन उनकी अधखुली आंखें शिव की तरह सब को ताड़ रही थी।
आत्मप्रशंसा हो या स्वप्रशंसा हम बहुत उदार हुआ करते थे। जहां जो मिल गया बस अपनी प्रशंसा शुरू कर देते हैं। मैंने यह किया। मैंने तो यह भी किया। मेरी तो इतनी इतनी किताबें आ गईं। मेरा सम्मान फलां जगह किया गया। मुझे तो उस समिति में भी रख रहे थे। मगर मेरा पास वक़्त कहां है। आपको तो पता ही है। और आप हां हां में गर्दन हिला रहे होते हैं। कहीं उन्हें भान न हो जाए कि सामने वाला सुन नहीं रहा है। हम चौकन्ने होकर उन्हें एहसास कराते हैं कि हम सुन रहे हैं। सुनने वाले की भी अपनी सीमा होती है। मगर बोलने वाले प्रभू अपनी ही रफ्तार में सुनाए जाते हैं।
आत्मप्रशंसा कीजिए अच्छी चीज है। कम से कम कोई और नहीं करता प्रशंसा तो हमें ही तो करना होगा। दूसरा क्योंकर प्रशंसा करेगा। सो कई बार अपने उत्पाद की बिक्री और प्रचार हमें ही करना पड़ता है। लेकिन कभी परप्रशंसा कर के देखिए। सामने वाला कितना गदगद हो जाता है। वह आपकी प्रशंसा भरी शब्दावली को गुन और सुन रहा होता है। जब आप देखे और अनुमान लगा सकें कि अब सही वक़्त है अपना छोटा सा काम सरका दें।
आत्मप्रशंसा और स्वप्रशंसा की ताकत इतनी मजबूत होती है कि किसी भी रूठे पी और प्रभू को मना सकते हैं। प्रिये साथी और प्रभू दोनों को ही मनाना संभव है। यदि परप्रशंसा में दक्ष हैं तो काफी लटके काम पूरे हो जाएंगे। मुरझाए चेहरे पर खुशी की लहर दौड़ पड़ेगी। इसका अनुमान भी शायद आपको न हो कि परप्रशंसा का असर कितना दूरगामी होता है। प्रभू आपको आत्मऔर परप्रशंसा कौशल में दक्षता प्रदान करें। 

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