Saturday, February 2, 2019

बोर्ड रूम से बेड रूम तक


कौशलेंद्र प्रपन्न
बोर्ड रूम में क्या होता है? क्या कुछ नहीं होता है। सब कुछ तो होता है। सपने बुने जाते हैं। सपनों को साकार करने की तरकीबें, रणनीति, योजनाएं आदि बनाई जाती हैं। बंधाई तो उम्मीदें भी जाती हैं। साथ ही कई उम्मीदों पर पानी भी फेरे जाते हैं। चेहरे पर मुसकान और उदासी भी फेरी जाती है। जिन्हें प्रमोशन मिला वह गदगद हो कर हंसते हुए बाहर निकलता है। जिन्हें प्रमोशन तो क्या उनके कामों की प्रशंसा भी नहीं होती वो किस मुंह से बाहर आते हैं और किस चेहरे के साथ बोर्ड रूम में बैठे रहते हैं इसका अनुमान लगाना कठिन नहीं है। तो कहानी बस इतनी भर है कि बोर्ड रूम की मीटिंग हौसला बढ़ाने वाली भी होती है और हौसला तोड़ने वाली भी। कोई टूट कर निकलता है तो वहीं कोई साश्रु कूच करता है।
बोर्ड रूम की बातें, नसीहतें, झांड़ फटकार का कुछ पर यूं भी असर पड़ता है कि या तो वह अपने काम को और बेहतर करने में लग जाता है या फिर जो काम वह कर रहा था उससे उसका मन उचट जाता है। वह फिर सिर्फ जॉब किया करता है। वह उसका करियर भी नहीं होता और आंतरिक कॉल भी नहीं होती है। बल्कि वह सिर्फ रोज़दिन आता है कुछ करता है और शाम में घर चला जाता है। इसमें वह सिर्फ काम करता है। उसकी न तो रूचि होती है और न ही रूझान और न ललक। बस वह करता है। वह क्या कर रहा है, इसका उसे इल्म भी नहीं होता। वह शायद यह जानना भी नहीं चाहता कि वह क्या और क्यों कर रहा है। बस क्योंकि किसी ने कहा है या आदेश है इसलिए किया करता है। इसमें न उस व्यक्ति का हित सधता है और न कंपनी की। दोनों ही किसी न किसी स्तर पर सफ़र करते हैं।
बोर्ड रूम की मींटंग में जहां कंपनी व संस्था की बेहतरी के लिए कार्ययोजनाएं बनाई जाती हैं। आगामी वर्षों के लिए एक्शन प्लान पर चर्चा होती है। व्यक्ति की क्षमताओं और कौशलों का मूल्यांकन भी हुआ करता है। दूसरे शब्दों में, जनवरी, फरवरी वह माह होता है कॉर्पोरेट कंपनियों के लिए जब पूरे साल किसने क्या किया, कितना किया, कैसे किया और क्यों किया आदि सवालों के जवाब तलाशे जाते हैं। इन्हीं बिंदुओं पर व्यक्ति के कार्यों और योगदानों की जांच-पड़ताल होती है। इसे हम एप्रेजल के नाम से जानते हैं। कंपनी और बॉस की क्या अपेक्षा थीं और उन अपेक्षाओं के निकष पर कौन कहां है यह मूल्यांकन अगले साल के बजट और प्लानिंग को ख़ासा प्रभावित करती है।
व्यक्ति जो कंपनी व संस्था में अपनी पूरी क्षमता, ऊर्जा, कंसर्न एवं मकसद की स्पष्टता के साथ काम करता है। वह चाहता है कि न केवल उस व्यक्ति को लाभ मिले बल्कि कंपनी एवं संस्था को भी उसकी दक्षता का लाभ हो। वह अपनी व्यक्तिगत इच्छा और उद्देश्य को पूरी शिद्दत से निभाता है ताकि उसे तो संतुष्टि मिले ही कंपनी को भी नई ऊंचाई प्रदान कर सके। किन्तु उसके महज चाहने से मकसद पूरे नहीं होते, बल्कि बीच बीच में अन्यान्य कामों और अपेक्षाओं के साथ भी उसे तालमेल बैठना होता है। यदि इस काम में चूक हुई तो उसका प्रमुख दायित्य कहीं न कहीं प्रभावित होता है। जो महत्वपूर्ण और ज़रूरी काम थे उसे पूरा करने से रह जाता है। इन्हीं रह गए कामों का मूल्यांकन एप्रेजल के वक़्त मायने रखते हैं। आपके बेहतर कामों के लिए जो भी प्रशंसा मिलती है उससे कहीं ज़्यादा असर छोड़ती है जब आपसे जो नहीं हो सका उसका ठीकरा आपके सिर पर फोड़ा जाता है। तुर्रा यह कि तमाम असफलताओं और प्रोजेक्ट के फेल होने का जिम्मा आपको थमा दिया जाता है। और इस तरह से प्रमोट होने, नई जिम्मेदारियों का हासिल करने से पहले दरकिनार कर दिए जाते हैं।
बोर्ड रूम की चर्चाएं यदि बोर्ड रूम तक ही सीमित रह पाएं तो बेहतर होता है-कंपनी और व्यक्ति दोनों के ही लिए। लेकिन मानवीय स्वभाव है कि हम अपनी सीमाओं, कार्यक्षेत्र में दिलचस्पी रखने की बजाए दूसरे के साथ क्या हुआ? क्यों हुआ? अब क्या करेगा आदि में उलझ पुलझ कर अपने महत्वपूर्ण और ज़रूरी कामों से दूर होते चले जाते हैं। दूसरी स्थिति यह भी होती है कि यदि हम कुशल मैनेजर नहीं हैं तो बोर्ड में कही गई बातों और चर्चाओं को घर और शयन कक्ष तक लेकर चले जाते हैं। यह फांक हमें समझने की आवश्यकता है कि जब हम बोर्ड रूम और बेड रूम के बीच के अंतर को नहीं समझेंगे तो घर बोर्ड रूम से बाहर आने के बाद भी उन्हीं झंझावातों में उलझते चले जाते हैं। बेड रूम में रात रात भर सो नहीं पाते। पत्नी और बच्चों को इसका ख़मियाज़ा भुगतना पड़ता है। बच्चे और पत्नी तो बाद में आती हैं पहले तो हमारा स्वास्थ्य इस चपेट में आता है। रक्तचाप बढ़ जाता है। भूख नहीं लगती और नींद तो कब की दूर छटक जाती है। मैनेजर को जो बोलना था एवं नसीहतें देनी थीं वो तो देकर फारिक हो गया। वह तो उसका रोज का काम है। आज आपको सुनाना था। आपको बोतल में उतारना था। कल किसी और प्रोजेक्ट में किसी की बारी आएगी। वह तो अपने टू डूज में से आपको सुनाने के बाद आपका नाम काट देता है। लेकिन हम घर जाने के बाद भी उसकी फटकारों और तीखी, चुभन वाली बातों को याद कर के अपने सेहद को ख़राब कर रहे होते हैं। इसका असर हमारे कामों पर भी पड़ता है। अगले दिन या तो आप छुट्टी ले लेते हैं। या फिर अपने को समेटने में सक्षम हो सके तो आफिस आ जाते हैं। आप दफ्तर में होते हैं लेकिन आपकी दक्षता, क्षमता, उत्साह और उम्मीद कहीं पीछे छूट जाती है।

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