Friday, January 4, 2019

मेला ए पुस्तक दिल्ली नगरे...



कौशलेंद्र प्रपन्न
आज की तारीख़ में लेखकों की बाढ़ आ चुकी है, इसे मानने और स्वीकारने में किसी को भी गुरेज़ नहीं है। लेकिन देखना यह है कि उन लेखन में क्या और कितने हरिशंकर परसाई, शरद जोशी, शंकर पुणतांबेकर, मृदुला गर्ग आदि निकलने पाते हैं। सदि तुलना करें तो पाएंगे कि पहले लेखक अपनी रचना और लेखन पर वक़्त बिताया करते थे। उन्हें संपादन करने वाले संपादक चुस्ते के साथ संपादित कर उन्हें मार्गदर्शन किया करते थे। किन्तु जैसे जैसे तकनीक का विकास हुआ वैसे वैसे नवलेखकों को विभिन्न स्तरों और स्वरूप में लिखने और प्रकाशित होने का अवसर मिला। यहां लेखक ही संपादक है। एक ही व्यक्ति संपादकख् लेखक, पाठक भी हुआ करता है और आलोचक भी। यहां संपादकीय सत्ता की कमी कहीं न कहीं रचना की गुणवत्ता को तय करने लगीं।
यादा हो कभी ऑरकूट भी अभिव्यक्ति का एक मंच आया। धीरे धीरे वहां भी लेखकों की बाढ़ आई। समय और तकनीक के बयार में वहां बिला गया। फेसबुक, ब्लॉग, ट्वीटर आदि सेशल मीडिया का अभिव्यक्ति का मंच मिला। इन खुले मंचों पर कोई भी लेखक अपनी रचना पोस्ट कर सकता है। उन कंटेंट पर अन्य अपनी राय देने में स्वतंत्र हैं। लेकिन यहां देखने वाली बात यह मौजू है कि टिप्पणियों में निजी राय, राग भी शामिल होते हैं। साथ ही यह भी देखा और पढ़ा जा रहा है कि किस व्यक्ति को इन मंचों पर बदनाम किया जाए व किसे तवज्जो देकर उसे प्रसिद्ध करना यह एक व्यापक अभियान के तौर पर चलाते समूह भी सक्रिय हैं। इन्हें भी हमें समझना होगा।
इन विश्व पुस्तक मेलों में क्या क्या और किस प्रकार सार्थक काम होते हैं इस पर नज़र दौड़ाएं तो पाएंगे कि ऐसे ऐसे लेखकों से बातचीत करने, चर्चा करने का अवसर मिलता है जो सदूर प्रांतों और दुर्गम क्षेत्रों में रहकर सक्रियता के साथ लेखन में लगे हुए हैं। हम पाते हैं कि ऐसे भी लेखक हैं जो महज लिखने में विश्वास किया करते हैं। छपने की ओर प्रेरित करने के लिए उने शुभचिंतक उन्हें मोटिवेट किया करते हैं। लेखकीय कर्म को करीब से देखने, महसूसने और जानने का अवसर कुछ ऐसे पल हुआ करते हैं जो अप्रतीम माना जा सकता है।
आज की तल्ख़ हक़ीकत यह है कि बहुत कम लोग पढ़ना चाहते हैं लेकिन लिखना हर कोई चाहता है। चाहता है कि रातों रात लेखक बन जाए। किन्तु वह उसके अनुरूप अभ्यास और प्रयास कम करता है। बेंजामिल फ्रैंक्लीन अपनी आत्मकथा में लिखते हैं कि वो जन्मना लेखक नहीं थे। उन्होंने अभ्यास के ज़रिए लेखकीय ताकत अर्जित किए। उन्होंने हप्ते, माह, साल लगाए और अभ्यास किया कैसे बेहतर लिखा जाए। और अभ्यास के मार्फत आज वो प्रतिष्ठित और स्थापित लेखक बन पाए। लेकिन आज के लेखक और लेखन कर्म में तुरंत फल की कामना करने वाले लेखक तुरत फुरत में सफलता हासिल करना चाहते हैं। अभ्यास की कमी और स्वाध्याय में कोताही कई बार लेखक को दोयमदर्ज़े का लेखक ही बना पाता है।


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