Saturday, January 12, 2019

आया फटकार का मौसम


कौशलेंद्र प्रपन्न
हर भाव और बातों का एक मौसम ख़ासकर मुकर्रर होता है। जैसे हमारी ऋतुएं तय समय पर आती हैं यह अलग बात है कि आज कल मौसम में भी समय सीमा पर नहीं आया करते। सर्दी देर से आती है। गरमी कुछ ज्यादा ही उतावली होती है। आ धमकती है मार्च ख़त्म होते होते। और बसंत तो ऐसा ही है। कोयल तो बेमौसम भी...। सब का चक्र सब बदल चुका है। दफ्तरों में भी एक मौसम ख़ास होता है। यह मौसम साल में एक बार आता है। वह मौसम है एप्रेजल का। यह मौसम है डांट डपट का। मौसम पर कर्मियों पर चढ़ जाने का। कर्मियों के हौसले को तोड़ना का मौसम भी शुरू हो जाता है जनवरी और फरवरी में। हमारा कर्मी आवाज़ न उठाए। हमारा कर्मी जिसने साल भी देह तोड़कर काम किया। इससे पहले की वह एप्रेजल में बढ़ोत्तरी की मांग न करे इसलिए यही वक़्त होता है हौसले को धांस देने का। उन्हें मॉरल स्तर पर ऐसे तोड़ा जाए कि मार्च और अप्रैल में बकार न निकाल सके कि इतना ही एप्रेजल हुआ।
दरअसल कर्मी पूरे साल मनोयोग से काम करता है। अपनी क्षमता से बाहर जा कर भी काम में नई उड़ान लाने की कोशिश करता है। एक उम्मीद होती है कि अगले साल पगार में अच्छी ख़बर होगी। लेकिन स्वनाधन्य और स्थापित मैनेजर और रिपोर्टिंग मैनेजर भी इसी ताक में रहते हैंं कि कहीं उनकी दक्षता पर सवाल न खड़ा हो। बस इस मौसम का लाभ उठाने से नहीं बचते। अपने कर्मियों के साल भर का काम का मूल्यांकन शुरू होता है। बताया जाता है कि पूरे साल तुमने क्या किया? कितना किया? क्या क्या तुम्हारे हिस्से में तय काम थे उसमें से कितने काम रास्ते में ही हैं। तुमने तो कुछ किया ही नहीं। तुमने तो वायदे किए थे कि ये कर दोगे। वो कर दोगे लेकिन तुमसे कुछ भी न हो सका। यही वो रिव्यू प्रक्रिया है जिसमें कर्मी के आत्मबल को ध्वस्त किया जाता है।
कंपनी के नए निज़ाम के कंधे पर तो दोहरी जिम्मेदारी होती है। उन्हें अपने बॉस के साथ ही कंपनी के नियंताओं के कृपापात्र भी विश्वासभाजक बनाना भी होता है। ऐसे में वह कई तरह की पहलकदमियां किया करता है। जो काम हुआ भी नहीं उसे नए सिरे से पेश कर अपना नंबर बनाना चाहता है। पिछले कामों को धत्ता बताते हुए अपनी अस्मिता और पहचान स्थिर करने के लिए किसी की पीठ छीलनी पड़े तो उसमें भी ये नए निज़ाम पीछे नहीं हटते।
यह एप्रेजल का मौसम भी अजीब है। एक दूसरे से दूर करने में बड़ी भूमिका निभाता है। जो पूरे साल साथ काम किया करते थे। साथ खाना खाया करते थे। उन्हें अचानक डर घेर लेता है कि कहीं फलां के साथ न देख लिया जाए। गलत असर पड़ेगा। हर कर्मी अपनी पीठ के घाव और चाबूक के दाग को छुपाना चाहता है। कोई भी पीठ पर पड़ी मार रिव्यू के कैसे दिखाए। सब के सामने अच्छा बनने के लिए वह हमेश चेहरे पर एक मुसकान चस्पा रखता है। कहीं देखकर लोग बता न दें कि निज़ाम को या फलां कर्मी की पीठ पर कितने निशान हैं।
इन फटकारों के मौसम के आने से पहले या गुजर जाने के बाद कंपनी से कई कर्मी अपना रास्ता अगल कर लिया करते हैंं। जब चाबूक की मार ही सहनी है तो क्यों न अपने पैसे पर सहा जाए। यदि गांट फटकार सुनने-सुनाने का कोई तय सीमा नहीं है तो बेहतर है किसी और दुकान में अपनी दक्षता बेची जाए। और इस तरह से बेहतर मानव संसाधन एक कंपनी से कूच कर जाता है। वैसे नए निज़ाम पर  इससे कोई ख़ास अंतर नहीं पड़ने वाला क्योंकि उसे लगता है उसे अंदर काम करने वाले निहायत ही नकारे और असक्षम हैं। ये चले जाएं तो ही बेहतर है।

1 comment:

Unknown said...

Har nizam ke upar ek bada nizam aur hamre niche kuch chote chote nizam, bade nizam ki samne sar jhukana aur choton ka sar kuchalna meri adat si ban gai hai , par phitratan main bhi yahi sochata hun jo apne likha

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