Sunday, December 31, 2017

साल का अंतिम दिन




कौशलेंद्र प्रपन्न
कोई नई बात नहीं। हर साल ही यह आया करता है। लोग धड़ल्ले से जगह जगह जा कर सूचना फेंके जा रहे हैं। कोई फलां रिसॉर्ट में, कोई गोवा, तो कोई न्यूयार्क में नए साल में टहल रहे हैं। जो बच गए वो अपने घर, गांव, शहर में अपने काम में लगे हैं।
किसान खेतों में आलू, गाजर, गन्ने काट, उखड़ रहा है। महिलाएं बुग्गी हांकती हुई बाज़ार जा रही हैं गन्ने बेचने। नज़र नज़र और जरूरत की बात है। स्थान और जीवन की प्राथमिकताओं की बात है।
फर्ज़ कीजिए आप गांव में हैं तो वहां नए साल के लिए क्या करेंगे। क्या आप मॉल्स में जाएंगे? क्या आप मोमोज खाएंगे या घर में बैठे घर के बने खाना खा कर कल फिर खेत पर जाने की तैयारी करेंगे। अपनी अपनी जीवन की चुनौतियां हैं और जीवन के रंग हैं।
महज कैलेंडर की तारीखें नहीं बदलतीं बल्कि हमारी एक आदत और अगले साल फिसल जाती है। हमारी रूचियां और प्रौढ़ हो जाती हैं। हम ज़रा और वयस्क हो जाते हैं। हमारी दृष्टि और साफ हो जाती है।
कई बार हम अतीत के पन्नों को पलटने में ही नए साल यानी वर्तमान को बोझिल करते रहते हैं। जबकि पिछले पन्ने को फाड़ कर आगे नई इबादत लिखनी चाहिए। जो शब्द पिछले साल खोखले रहे गए थे उन्हें अर्थ से लबालब करने की ललक हो तो नए साल की किताब को और रोचक बनाया जा सकता है।
 

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