Thursday, December 28, 2017

जाल समेटा करने का समय...


कौशलेंद्र प्रपन्न
पता नहीं कहां कहां, कब, कैसे किसी को ठेस पहुंचा किया हमने। कहां न जाने हम गिरे। कहीं अपनी नज़रों में। तो भी दूसरों की नज़र में। अब गिरता तो गिरना है। वह जहां भी हुआ हो। उन उन लोगों से उन स्थानों पर पूरी संजीदगी के साथ और शिद्दत से मॉफी मांग लेने में कोई हर्ज़ नहीं है।
हम अपने तमाम कर्मां, गुण-अवगुणों के स्वयं मूल्यांकनकर्ता होते हैं। हमें कभी न कभी। किसी ने किसी के सामने अपनी ग़लतियों को कबूल कर लेना चाहिए। कहीं ऐसा न हो कि वक़्त निकल जाए और आप ग्लानि में सांसें लेते रहें।
हर साल, हर पल अपने साथ कई किस्म के तज़र्बे ले कर आया करता है। कुछ सुखद होते हैं तो कुछ टीस देने वाली। चेहरे तो हंसते रहते हैं लेकिन अंदर की नदी कहीं सूख रही होती है। आत्मबल कमजोर हो रहा होता है।
कितना बेहतर हो कि हम अपनी कमियों, ग़लतियों को स्वीकार कर लें और आत्मग्लानि से बच जाएं। सो यह काम हमें कर ही लेना चाहिए।
सुखद बातों को हम अक्सर याद रख लिया करते हैं। लेकिन जो छूट जाती है वह किसी कोने में पड़ी सुबकती रहती है। वह दुखद या कष्ट देने वाली घटनाएं हुआ करती हैं। मगर गौर से देखें तो वह पल भी तो हमारा ही हिस्सा हुआ करता था।
बस इतनी सी बात है जब भी हम अपनी बात, एहसास को स्वीकार कर और सही व्यक्ति तक पहुंचा देते हैं तब हमारी ख़्वाहिश पूरी हो जाती है। 

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