Monday, December 4, 2017

तमाशा कुछ यूं हुआ...





कौशलेंद्र प्रपन्न
तमाशा करने वाले बनिए जनाब भीड़ तो इकट्ठी हो ही जाएगी। भीड़ के पास वक्त ही वक्त है। भीड़ को तमाशा चाहिए। आप तमाशा बनना चाहेंगे?
आज की तारीख में हर चीज तमाशा है। वह आपकी कला हो, बोलना हो, उठना-बैठना ही क्यों न हो। एक बार तय करने की जरूरत है कि आप क्या करना चाहते हैं।
हमारे आस-पास तमाशा ही तमाशा हो रहा है। क्या आप भीड़ का हिस्स बनना चाहते है? क्या आप मज़मा जुटाने वाले बनना चाहते हैं यह हमें तय करना है।
हमने भी यही किया। खुले में अपना तमाशा बनवाया। बल्कि कहिए मैं तो अपना स्केच बनवा रहा था। लेकिन बाकी क्या कर रहे थे। क्या उनके पास वक्त था दूसरे के लिए? वक्त था, रूचि थी। और था उनके आस पास क्या अलग हो रहा है। क्या नया हो रहा है। जो भी जहां भी नया होगा तमाशा वहीं लगा करेगा।
शर्त है आप तमाश लगाना चाहते हैं। उन स्केच के दौरान कई से बातचीत भी होती रही। वे खुश थे कि उनके बीच कोई ख्ुलकर, बिना संकोच के तमाशा बनवा रहा है।
देखते ही देखते वहां तकरीबन पचास तो दर्शक जुट ही चुके थे। इसमें बच्चे, बड़े और बुढ़े भी शामिल थे। धीरे धीरे स्केच अपना रूप लेता रहा और दर्शकों की ओर से कमेंट भी आ रहे थे। कमेंट सुनकर उनको जवाब भी देता रहा।
आनंद इसमें नहीं था कि स्केच बना रहा था। बल्कि मजा इसमें भी कि लोग भागदौड़ की जिंदगी में कुछ देर ठहर कर अपने आस पास घटने वाली घटना के प्रति जिज्ञासु थे।
कभी तमाशा कभी मजमा यूं भी लगाया जाए,
भीड़ में अकेले खड़े से बतियाया जाए।

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