Tuesday, December 26, 2017

भीड़ में मैं या कि तुम


कौशलेंद्र प्रपन्न
जब से छुट्टियों को मौसम आया है तब से लोग दिल्ली छोड़ उड़ने में लगे हैं। जो उड़ नहीं सकते वो रेंग रहे हैं। जो रेंग नहीं सकते वे घिसट कर चलने लगे हैं।
दिल्ली को कोना कोना भीड़ में तब्दील हो चुका है। हर सड़क हर मॉल्स सजे हुए हैं। सड़कें कराह रही हैं। जिधर देखो उधर भीड़ ही भीड़ गाड़ियां ही गाड़ियां।
शायद हम कितने थक जाते हैं। पूरे साल काम करते करते। काम न भी करें तो छुट्टियों का इंतज़ार कुछ इस तरह होता है गोया इसके बगैर हम कितने अधूरे हैं।
आज कल ऑफिस में साथी कम हैं। शोर कम है। सभी कहीं न कहीं भीड़ का हिस्स बने हुए हैं। जहां होटल 500, 2000 में मिला करते हैं। वहीं उनके रेट आसमान छू रहे हैं।
होटल वाले, गाड़ी वाले। टै्रवल एजेंट सब के सब बिजी हैं। सर अभी बहुत महंगे हैं। आफ मौसम तो अब होता कहां है।
देश विदेश हर जगह लोग उड़ने को बेताब हैं। जिन्हें विदेश नहीं लिखा व मिला वो देश में ही अंतरदेशीय उड़ान भर रहे हैं।
हम इतना खाली पहले कभी नहीं थे। जितने अब होते जा रहे हैं। नाते रिश्तेदार कहीं खो गए। किसी से मिलने की न तो ललक बची और न वक्त। चाव तो कब की जाती रही।
बाहरी शोर से हमने अपने आप को भरना शुरू कर दिया है।

1 comment:

darpan mahesh said...

yah samay hi aisa hai ki insan samajh nahin pa raha ki sukh to aspas hi hai. uske liye kahin bahar kakar hotal men thaharana zaroori nahin. pariwar ke sath bitaye masoom pal jo sukoon dete hain, vah or kahin naseeb nahin ho sakata.

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