Thursday, November 29, 2018

तुमसे न हो पाएगा



कौशलेंद्र प्रपन्न
आंखों में अंगूली डाल कर जगाने का भी प्रयास कर लें लेकिन कुछ लोग हैं जिनकी नींद है कि टूटती नहीं। न जाने किस किस्म की नींद में सो रहे होते हैं और सपने देखा करते हैं। दूसरे शब्दों में कहें तो उन्हें इस बात और हक़ीकत का ज़रा भी एहसास नहीं होता कि क्या उनके सपनों में झोल है या कि उनकी नींद ही नहीं टूटी।
हमारे आस-पास ऐसे बहुत से लोग हैं जिनकी नींद इतनी गहरी होती है कि उन्हें इस बात का इल्म नहीं होता कि उनके आस-पास कुछ नई चीज भी घट रही है। कैसे समीकरण बन और बिगड़ रहे हैं। वो साहब हैं कि देखना ही नहीं चाहते। शायद देखने से डरते हैं। डर शायद इस बात की भी है कि कहीं चूक न जाएं। कहीं रिजेक्ट न कर दिए जाएं। पता किस तरह जीया करते हैं।
जब तक ऐसे लोगों को कहीं ठोकर न लगे। या जब तक कान पकड़ कर यह न कहा जाए की आपकी ज़रूरत नहीं है। आपकी भाषा से बू आती है। भाषा में ग्रामीण ठेठ गंध भरा है। तुम्हारी भाषा ही ऐसी है कि वो गांव देहात, सम्मेलन में तो ठीक है लेकिन यहां के लिए मकूल नहीं है। वो अपने आप में अपने आप को तुर्रमख़ां समझा करते थे। अपनी भाषायी चमक के सामने कुछ और देख ही नहीं पाते थे। उनके पास और उन्हीं की कुर्सी के बगल से जमीन छिनी जा रही थी और वो थे के सपने के पीछे भाग रहे थे।
उन जनाब का सपना था कि फर्र फर्र उनकी भाषा बोलें, उन्हीं की तरह सर्रसर्र बोलकर औरों पर रौब बरसाएं। लेकिन यह हो न सका। जब वो बोलने का प्रयास करते। कोशिश करते कि उन्हीं की भाषा बोलें। गंवई भाषा जिनसे उन्हें बू आया करती थी। वो पीछे धकेल दें। उसने पूरी कोशिश की कि उस भाषा से नाता तोड़ ले। लेकिन क्या यह संभव था? जिस भाषा के कंधे पर चढ़कर यहां तक का सफ़र तय किया था कैसे उसे बिसुरा दे। मगर उसके सामने अब दो ही रास्ते थे। या तो नई भाषायी बहुरिया को अपनाकर आगे बढ़े। दूसरा रास्ता पुरानी राह पर ही चलता रहे अपने शान से। अपनी ठसके के साथ।
उसके सामने भाषा और ओहदा दो ऐसे द्वंद्व थे इनमें से उसे क्या चाहिए था। क्या वह भाषायी ताकत हासिल कर उन लोगों में शामिल हो जाए जो तोहमत लगाया करते थे तुमसे न हो पाएगा। तुम तो रहने दो। मुंह खोलते हो तो भाषायी बू आती है। बोलना आता नहीं और कौआ चला हंस के चाल और अपनी चाल भी भूल गया।

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