Wednesday, November 21, 2018

डिग्री मिली पर...



कौशलेंद्र प्रपन्न
डिग्री बांटने और बेचने वाले बहुत हैं। दुकानें भी बहुत हैं। जहां हर किस्म की डिग्रियां मिला करती हैं। सही दुकान की तलाश आपने कर ली तो सारी मेहनत सफल हो जाएगी। वरना पास होने और डिग्री लेने के बाद भी कुछ सालों बाद आपके उस बैंच के उस कोर्स की डिग्री अमान्य भी हो जाती है।
कुछ साल पहले तक बीएड की डिग्रियां ख्ूब अच्छी खेप में बिकीं। डिग्री के दुकानदार मालामाल हो गए। छात्र में सरकारी नौकरियों में मजे कर रहे हैं। लेकिन बच्चों का क्या हुआ। उन्हें कक्षा में कैसे खड़ा होना है, कैसे पाठ योजना बनानी है? कैसे गतिविधियों को अंजाम देना है आदि तक नहीं आते। पता नहीं कैसे उन लोगों को शिक्षा में जगह मिल गई। दो एक साल पहले जम्मू कश्मीर की उच्च न्यायालय ने शिक्षा विभाग की अच्छी क्लास ली थी कि कैसे कैसे संस्थान आप चला रहे हैं जहां बच्चों को कुछ सीखाया नहीं जाता। महज उन्हें डिग्रियां बांटने की बजाए कुछ सीखा भी दें।
न केवल शिक्षा में बल्कि यही हाल लॉ, मैनेजमेंट आदि क्षेत्र के भी हैं। जहां मैनेजमेंट, तकनीक आदि के कोर्स कर डिग्री तो उनके पास होती है लेकिन न तो उन्हें उनकी विषयी समझ पुख्ता होती है और न ही ऑफिस में काम करने का सलीका ही होता है।
केपी सक्सेना का एक व्यंग्य याद आता है जिसमें एक स्कूल की कल्पना की है। वह स्कूल है सैंडलहुड पब्लिक स्कूल। जहां प्रिंसिपल ही चपरासी है। प्रिंसिपल ही टीचर है। वही एक व्यक्ति पूरे स्कूल का स्टॉफ है। उस व्यंग्य को पढ़कर कहानी काफी स्पष्ट हो जाएगी। यह मसला शिक्षा के साथ ही अन्य क्षेत्रों का भी है। कहानी एक सी है।

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