Saturday, November 24, 2018

स्कूलों का विलयीकरण और सीखने के प्रतिफल



कौशलेंद्र प्रपन्न
पिछले दिनों दिल्ली के प्राथमिक स्कूलों में कक्षा अवलोकन का अवसर मिला। उस ऑब्जवेशन में पाया कि लगभग सभी कक्षाओं में शिक्षकों ने दीवार पर सीखने के प्रतिफल लिखकर चिपका रखा था। अंग्रेजी हम जिसे लर्निंग आउटकम इडिकेट््रर्स कहते हैं, हम कक्षा में टंगा और चिपका हुआ मिला। उस चार्ट पेपर पर हिन्दी, अंग्रेजी, गणित, समाज विज्ञान आदि विषयों में बच्चा कितना सीख लेगा उसका एक रोडमैप मिला। यह देखकर खुशी हुई कि आदेश के बाद ही सही लेकिन शिक्षकों ने इस प्रकार के चार्ट अपने क्लास में लगा रखे हैं। हालांकि अपेक्षा यह भी कि यह जान सकें कि क्या वो इन प्रतिफलों को हासिल करने के लिए कोई रणनीति भी बनाई हुई है या सिर्फ दिखावे के लिए दीवार का कोना प्रयोग में लाया गया है। शिक्षकों की जबानी जो कहानी सुनी, वह चौकाने वाली थी। उन्हें पढ़ाने का ही समय नहीं मिलता। कब कक्षा से बाहर कागजातों के पेट भरने के लिए बुलावा आ जाता है और पढ़ाते पढ़ाते बीच में दफ्तरी काम में लग जाना होता है।
इन शिक्षकों को विभिन्न संस्थानिक प्रशिक्षण भी दिए गए लेकिन अफ्सोसनाक बात यही है कि वे प्रशिक्षण कार्यशालाओं के दौरान सीखे गए कौशलों का इस्तमाल करने का उन्हें मौका ही बहुत कम मिलता है। उस तुर्रा यह तर्क और लांछन लगाया जाता है कि शिक्षक कक्षा में पढ़ाता ही नहीं। यह कितना बेबुनियाद बात है कि हम शिक्षक को कक्षा पढ़ाने का अवसर कम देते हैं और फिर पूछते हैं बता, तेरे क्लास के बच्चे पढ़ना और लिखना क्यों नहीं सीख सके।
इसी दिल्ली में एक ओर नगर निगम के स्कूल अपनी बदहाली से गुजर रहे हैं। वहीं दूसरी ओर माध्यमिक और उच्च माध्यमिक स्कूलों में रोजदिन नई नई तकनीक प्रदान की जा रही है। ये कैसे बुनियाद हम बना रहे हैं इसका अनुमान तो तब लगता है जब मालूम चलता है कि इसी दिल्ली में एक ओर स्कूलों को दूसरे स्कूलों में मर्ज कर दिया जाता है या फिर बंद कर दिया जाता है। वही उन्हीं स्कूलों की जमीन पर सरकार पार्किंग बनाने की अनुमति प्रदान करती है। यह भी कमाल की प्राथमिकता है शिक्षा के प्रति।
शायद हमारी प्राथमिकता शिक्षा नहीं बल्कि उत्पादक और आर्थिक स्रोत पैदा करना ज्यादा है। यही स्थिति अन्य राज्यों की भी है। कई राज्यों में सरकारी स्कूल या तो बंद कर दिए गए या फिर स्कूलों को दूसरे स्कूलों में विलय कर दिया गया। बच्चों को उनके भाग्य पर छोड़कर सरकार अपना पल्ला नहीं झाड़ सकती। लेकिन हो तो यही रहा है। हमारे सरकारी स्कूल और सरकारी कॉलेज आदि इसी संक्रमण के दौर से गुजर रहे हैं। 

No comments:

शिक्षकीय दुनिया की कहानी के पात्र

कौशलेंद्र प्रपन्न ‘‘ इक्कीस साल के बाद पहली बार किसी कार्यशाला में बैठा हूं। बहुत अच्छा लग रहा है। वरना तो जी ...