Thursday, November 8, 2018

वो जो एक शहर था



कौशलेंद्र प्रपन्न
शहर क्या पूरा का पूरा इतिहास समेटे सदियों से खड़ा था शहर। शहर के बीचों बीच एक लंबी,चौड़ी झील कहें, तालाब कहें जो भी नाम दें पुराना झील हुआ करता था। जब भी शहर में कोई कार्यक्रम होता। कोई मेला लगता या फिर जलसा होता तो इसी झील के किनारे लोग इकत्र हुआ करते थे। मेला,ठेला, अपरंपार भीड़ का स्वागत यह शहर किया करता था। इतिहास को अपनी प्रगति और अस्तित्व के साथ ओढ़े हुए जिं़दा था। इसी शहर में एक बड़ी फैक्ट्री भी हुआ करती थी जिससे इस शहर की पहचान थी।
शहर के बीचों बीच एक नदी भी हुआ करती थी, बल्कि नदी नहीं यह नद हुआ करता था। देशभर में तीन ही नद हैं जिसमें से एक नद था। बल्कि है। लेकिन समय के साथ वह नद भी महज बरसाती नदी सी हो गई है। सिर्फ साल में कुछ ही माह इसमें भर भर कर पानी हुआ करते हैं।
इस शहर को भी ऐतिहासिक नाम मिला हुआ था क्योंकि इसी शहर के तट पर बाणभट्ट के कुछ पाठ लिखे गए थे। यह देहरी घाट हुआ करता था यह इस शहर का पुराना नाम है। जो बाद में देहरी हुआ, फिर कालांतर में डेहरी हुआ। और जब अंग्रेज आए तो इसका नाम डेहरी ऑन सोन पुकारना शुरू किया। क्योंकि यह शहर पर सोन के किनारे बसा था इसलिए इसे डेहरी ऑन सोन नाम दे दिया। संभव है जिस प्रकार से शहरों के नाम बदले जा रहे हैं इस शहर को भी नामबदलुओं की नज़र न लग जाए। और इस शहर का नाम देहरी ऑन सूत्रपुत्र कर दिया जाए।
शहरों के नाम बदलने की संस्कृति में उन तमाम शहरों को डर है बल्कि शहर भी डरे हुए हैं कि कभी भी उन्हें नया नाम दिया जा सकता है। एक सवाल पूछने का मन कर रहा है कि वॉट इज देयर इन द नेम? वॉट इज देयर इन पर फॉम? आदि। नाम से ज़्यादा मायने काम रखा करता है। लेकिन कहते हैं फैशन के दौर में नाम ही बिका करता है। दूसरे शब्दों में कहें तो नाम पर ख़राब से ख़राब चीजें भी अच्छे दामों पर बिक जाया करती हैं।
दूसरा मेरे शहर में पुराने कुछ एक ही मूर्तिया हुआ करती थीं। जैसे डेहरी पड़ाव। इस मैदान से लगा था गांधी मैदान। संभव है आने वाले दिनों में गांधी के बगल में ही कुछ और लोगों की मूर्तियां रातों रात लगा दी जाएं और नए नाम से पुकारने के फरमान जारी कर दी जाएं।
शहर को बसने और विकसने में वक़्त लगा करता है। धीरे धीरे शहर की पहचान वहां की सांस्कृतिक और सामाजिक बुनावट से हुआ करती है। जिस शहर में कभी बारह पत्थल, बीएमपी, झांबरमल गली हुआ करती थी। वहीं राजपुतान मुहल्ला भी होता था। याद नहीं है लेकिन उसी शहर में एक हिस्सा मुसलमानों का भी हुआ करता था। जिसे कोई ख़ास नाम मयस्सर नहीं था। बस उसे मुसलमानों के मुहल्ले से जाना जाता था। धीरे धीरे उस मुहल्ले को भी नज़र लगने लगी। माना जाता है कि शहर के बसने की प्रक्रिया में कई सारी चीजें, मान्यताएं साथ साथ रचने बसने लगती हैं। मंदिर, गुरूद्वारा, मस्जिद आदि। वहीं छोटी-छोटी दुकानों का भी जन्म होता है। देखते ही देखते वहीं पुरानी दुकानें शहर की पहचान बन जाया करती हैं।
जब एक शहर अपना रंग रूप बदला करता है तो उसके साथ बहुत सी चीजें अपने आप बदलाव की प्रक्रिया से गुजरने लगती हैं। कहते हैं जब टिहरी को डूबोने की प्लानिंग हो रही थी तब वहां के निवासियों ने काफी विरोध किया था। वहां के पत्रकार, लेखक, कवि, कथाकारों ने अपनी अपनी रचनाओं और कलमों से इस विकास को रोकने का प्रयास किया मगर सत्ता और सरकार सबपर भारी पड़ी। दिवाली का ही दिन था जिस दिन टिहरी जलमग्न हो गई थी। वह एक शहर का डूबना भर नहीं था बल्कि उस शहर के साथ एक इतिहास भी जल में समा गया था। वहां ही संस्कृति और मान्यताएं, कथा कहानियों भी एक साथ जलमय हो गईं। जब कभी भी शहर का नाम बदला जाए या शहरों को मूर्तियों का शहर बनाया जाए तब वहां के निवासियों की भी राय ली जाए।

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