Tuesday, November 13, 2018

बच्चों से संवाद के सरोकार


कौशलेंद्र प्रपन्न

बच्चों से हम कब बात करते हैं? कहां बात करते हैं? कैसे बात करते हैं आदि सवाल आज की तारीख़ में खत्म होती कड़ी नज़र आती है। संवाद के नाम पर हम शायद उन्हें आदेश दे रहे होते हैं, सूचनाएं परोस रहे होते हैं या फिर उनसे रोजनामचा ले रहे होते हैं। बताओं कि आज स्कूल में क्या हुआ? यह भी बताओं कि ट्यूशन में क्या पढ़ा आदि। क्या इसे संवाद की श्रेणी में रखें? क्या हम इसे मुकम्म्ल संवाद मानें? जहां तक जे.कृष्णमूर्ति का मानना है कि हम संवाद प्रकृति के तमाम चीजों से किया करते हैं। हम पेड़ पौधों, पहाड़, जीव-जंतुओं से भी चाहें तो कर सकते हैं। और ये तमाम तत्व हमारे संवाद में हिस्सा भी लेते हैं। लेकिन हम बच्चों से संवाद स्थापित नहीं करते। जैसा कि ऊपर कहा गया हम बच्चों से संवाद करने की बजाए सूचनाओं का आदान प्रदान ज़्यादा किया करते हैं। ऊपर से बच्चों पर आरोप लगाते थकते नहीं हैं कि बच्चे सुनते नहीं हैं। बच्चे हमारी बातों में दिलचस्पी नहीं लेते। सोचना हमें है कि यदि हम सुनना चाहते हैं तो हमें कहना भी आना चाहिए। कैसे कहें और कितना कहें, कब कहें इसकी समझ हमें विकासित करनी होगी। पहली बात तो यही कि हम स्वयं सुनना नहीं चाहते। यानी भाषा के एक कौशल सुनने मे ंहम कितने कमजोर हैं और दोषी बच्चों को ठहराते हैं कि बच्चे सुनते नहीं हैं। हम कब उन्हें कहते हैं उसका समय, स्थान, और परिवेश का भी ख़्याल नहीं रखते। जब मेहमान आए हुए होते हैं तब हम कहते हैं अजी ये तो सुनता नहीं है। स्कूल से आने के बाद सामान कपड़े इधर उधर फेंक देता है। पढ़ने में तो ज़रा भी इसका मन नहीं लगता। एक हमारा समय था इस उम्र में हम कितने गंभीर थे। मजाल है हम अपने मां-बाप को जवाब दे दें। ऐसे सोचने वाली बात यह है कि क्या आपका बच्चा उस वक़्त सुन रहा है या सुनने का स्वांग कर रहा है। दरअसल वक़्त हम बच्चे से संवाद स्थापित करने की बजाए अपनी आपबीती और बच्चे की दुनिया की उपेक्षा और अस्वीकार्यता औरों के समक्ष रख रहे होते हैं। हमें अनुमान नहीं होता कि इस पूरी प्रक्रिया में बच्चा कहीं न कहीं स्वयं को उपेक्षित और हेय मानने और समझने लगता है। दूसरे शब्दों में कहें तो बच्चे अंदर ही अंदर कुंठित होने लगता है। जब पापा या मम्मी को मेरी बुराई ही करनी है तो करें। मैं तो ऐसी ही हूं। हम अंजाने में बच्चे की अस्मिता और सम्मान को ठेस पहुंचा रहे होते हैं। हमें इसका ख़मियाज़ा आगे चल कर भुगतना पड़ता है। जब बच्चा उच्च या माध्यमिक स्कूल में आ जाता है। अब वह खुल कर अपना तर्क रखने लगता है। आपसे भी तर्क और प्रतितर्क करने लगता है। तब हमें महसूस होता है कि यह हमसे जबाव लड़ा रहा है। जबकि वह जबान नहीं लड़ा रहा है बल्कि वह समझने की कोशिश करता है कि जो चीज पापा-मम्मी को पसंद नहीं है वह हमारे लिए कैसे हितकर हो सकते हैं।
आज की तारीख़ी हक़ीकत यह है कि बच्चों के आत्मस्वाभिमान को हम तवज्जो नहीं देते। बल्कि अपनी प्रतिष्ठा और आत्मपहचान को ज़्यादा अहम मान बैठते हैं। यदि बच्चा फेल हो जाए या आपके कहने पर कोई कविता, कहानी दूसरों को न सुना पाए तो यह आपके लिए प्रतिष्ठा की बात हो सकती है। क्या हमने उस वक़्त बच्चे की पसंदगी पूछी? क्या बच्चे का बाह्य संसार अभी कविता व कहानी सुनाने के लिए मकूल है? हमें इन बातों को भी ध्यान में रखने होंगे। लेकिन हम जिस प्रकार की प्रतिस्पर्धा की दुनिया में सांसें ले रहे हैं ऐसे में ही माहौल में हमारा बच्चा भी जी रहा है। अक्सर हमारी तुलना के खेल बचपन से ही शुरू हो जाते हैं जिसका दबाव मां-बाप पर और आगे चल कर बच्चों में संक्रमित होते नज़र आते हैंं। मसलन हर बच्चे की अपनी प्रकृति होती है वह उसी तरह विकसित होता है। कुछ बच्चे जल्दी बोलने और चलने लगते हैं। हम अपने भाग्य और बच्चों के बरताव पर चिल्लाने लगते हैं कि हमारा बच्चा तो बोलता ही है। फलां का देखो इससे छोटा है मगर साफ बोलता है। चलने भी लगा है। हमें धैर्य से काम लेने की आवश्यकता है।
जैसा कि ऊपर प्रमुखता से इस बात की तस्दीक की गई कि बच्चों से संवाद स्थापित की जाए न कि सूचनाओं का आदान प्रदान। यदि ठहर पर मंथन करें तो पाएंगे कि बच्चों से संवाद करने की संभावनाएं दिन प्रति दिन कमतर होती जा रहा हैं। बच्चों से संवाद की कड़ी जब अभिभावकों के हाथ से निकल कर बाजार के हाथ में आ जाती है तब स्थिति बिगड़ने लगती है। बाजार अपनी शर्तां पर, अपने तरीके से बच्चों से संवाद कम अपना कन्ज्यूमर बनाने लगता है। वह अपने प्रोडक्ट्स के उपभोक्ता तैयार करने लगता है। यही कारण है कि हमारे घरों में बच्चे हमारी कम बाजार और विज्ञापन की भाषा ज़्यादा जल्दी समझने और बोलने लगते हैं। बाजार की यही तो ताकत है कि बाल मनोविज्ञान का इस्तमाल इन्हीं उपभोक्ताओं को फांसने में करता है। हम धीरे धीरे बच्चों की भाषायी और संवादी परिधि से बाहर होने लगते हैं। जब हमारे हाथ से बाल-संवाद की डोर छूटने लगती है तब हमारी िंचंता बढ़ने लगती है। हम आनन-फानन में टीवी के रिमोट छुपाने लगते हैं।

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