Thursday, November 1, 2018

हिन्दी से अंग्रेजी की यात्रा


हिन्दी से अंग्रेजी की यात्रा
कौशलेंद्र प्रपन्न
पूरी जिं़दगी याने जितनी पढ़ाई लिखाई की वो सब हिन्दी में ही की। हिन्दी में पढ़ना-लिखना, सोचना, बोलना भाषा के चारों कौशलों का काम हिन्दी में रही। सो हिन्दी भाषा के तौर पर दक्षता हासिल की ली। अंग्रेजी को कभी उतना तवज्जो नहीं दी। जबकि देनी चाहिए थी। मेरे पिता अंग्रेजी के ही अध्यापक रहे। हमें स्कूल और घर पर अंग्रेजी और हिन्दी दोनों ही भाषाएं पढ़ाईं। लेकिन बचपना ही कहेंगे कि अंग्रेजी के प्रति अनुराग नहीं जग पाया। न लिखने को लेकर और न पढ़ने और बोलने के स्तर पर। ऐसा भी नहीं था कि अंग्रेजी से कोई गुरेज था बल्कि एक लापरवाही थी कि अंग्रेजी पर ध्यान नहीं दिया।
अब जब बतौर भाषाकर्मी के नाते सोचता और अमल करने की वकालत करता हूं तो महसूस होता है कि हमें किसी भी भाषा के बैर नहीं है। न ही होना चाहिए बल्कि भाषा के लिहाज से एक बेहतर इंसान बनने के लिए बहुभाषी होना ही चाहिए। यह एहसास तब हुआ जब प्रोफेशनली भूमिका बदली। जब तक भाषा विशेषज्ञ था तब अलग ही चश्में से देखा करता था। लेकिन जब से मैंनेजर व लीडर की भूमिका में आया तब महसूस हुआ कि यदि बहुजन तक पहुंचना है तो बहुभाषी होना नितांत ज़रूरी है।
मेरे जीवन में भाषायी और चिंतन तौर पर 360 डिग्री पर परिवर्तन घटित हुआ जब मार्च में मैं आईआरमा में प्रोजेक्ट मैनेजमेंट और लीडरशीप की को कोर्स के लिए गया। वो चार दिन अंग्रेजी में सुनना, बोलने की कोशिश करना आदि बेहतर रहा। वहीं से शायद अंग्रेजी के प्रति राग पैदा हुआ। मैंने अपने आप से वायदा किया कि अब मैं अंग्रेजी से भी मुहब्बत किया करूंगा। यह भाषा भी हमारी है और हमें सीखनी ही चाहिए।
तब का दिन और आज का दिन अंग्रेजी बोलने, सुनने और पढ़ने के अभ्यास को बढ़ा दिया। ज़्यादा से ज़्यादा अंग्रेजी में कंटेंट पढ़ना और बोलने की कोशिश शुरू हो गई। इसका परिणाम यह हुआ कि 23 मार्च को एक संस्थान में देश के विभिन्न राज्यों से टीचर और टीचर प्रशिक्षक उपस्थिति थे। पहले से मालूम नहीं था कि वहां हिन्दी भाषी कम होंगे। ज़्यादा तर दक्षिण भारतीय थे। मैंने जब देखा तो लगा मुझे मेरी हिन्दी यहां काम नहीं आएगी बल्कि अंग्रेजी की मदद चाहिए। और मैंने कंटेंट वही रखा और शुरू हो गया अंग्रेजी में। शाम साढ़े पांच बजे तक चले से सत्र के बाद मैंने लोगों से पूछा क्या उन तक पहुंच सका? क्या मेरी बात उनक तक संप्रेषित हो पाई? तो लोगों ने साफतौर पर कहा कि हां उन्हें मेरी बात ही समझ में नहीं बल्कि जो मैंने उन्हें दिया वो भी ख़ासा मायने वाला था।
अहमदाबाद के बाद यह पहला मौका था जब मैंने बिना किसी हिचकिचाहट के सुबह नौ बजे से शाम पांच बजे तक तकरीबन पांच घंटे अंग्रेजी में व्याख्यान दिए। हिन्दी बीच बीच में छौंक के तौर पर आई। उन दिन मेरा हौसला और बढ़ गया।
अंत में यह कहना चाहता हूं कि जिस भाषा से भागता रहा आख़िर में उसी भाषा को अपनाकर आज खुश भी हूं और अभिभूत भी कि आज मेरे पास दो सशक्त भाषाएं हैं जिनके कंधे पर सवार होकर दुनिया को देख और समझ सकता हूं। मैंने यह जरूर किया कि अंग्रेजी के चैनल, व्याख्यान, इंटरव्यूज आदि देखने पढ़ने शुरू किए ताकि ज़्याद से ज़्यादा अंग्रेजी की तमीज़ और ध्वनियां, नजाकत और मुहावरे कानों में पड़े। जब भी कुछ नया वाक्य या मुहावरे सुनता उसे कहीं न कहीं किसी न किसी के सामने उगल देता। मेरे साथ काम करने वालों को लग गया कि कुछ तो है। कुछ है जो मुझमें घटा है। कुछ है जो मुझमें नया हुआ है। कुछ तो तब्दीली हुई है कि आज कल मेरी भाषा पर अंग्रेजी तारी हो रही है। तैर रही है। साथियों ने पूछा भी कि आख़िर क्या हुआ? क्या हुआ ऐसा कि आज कल मैं अंग्रेजी में बोलने बतियाने लगा हूं। ऐसे क्या हुआ और क्या किया एक माह या दो माह में मेरी भाषा पर नजर आने वाली बारीक ही सही किन्तु अंतर लोगों की नजरों से ओझल नहीं रह सकीं। कुछ ने पूछा भी ऐसा क्या किया व क्या कर रहा हूं कि अंग्रेजी में बोलने, लिखने लगे। सिर्फ और सिर्फ इतना कह सका कि जो बात बड़ी शिद्दत और चिंता से पिताजी कहा करते थे लेकिन कभी नहीं माना बस अब वो कर रहा में। कभी भी देर नहीं है। जब भी अपने प्रति हम सचेत हो जाते हैं तभी से बदलाव घटित होने लगता है।

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