Thursday, November 15, 2018

बहन का ननद बन जाना



कौशलेंद्र प्रपन्न
कहते हैं बहनों के बिना क्या बपचन और क्या जीवन। बिना बहनों से लड़े झगड़े यदि बचपन काट दी तो वह भी जीना है? बहनों के साथ खेलना, लड़ना-मारना पीटना, लात मुक्का सब खेल के हिस्से हुआ करते हैं। कभी उसकी कापी के पन्ने फाड़ना, कभी चोटी खिंचना और कभी उससे लिपट कर रोना और मां-पिताजी से बचाने का गुहार लगाना इतना सब कुछ तो होता बहनों के साथ। और देखते ही देखते एक दिन कोई बाहर का लड़का कर बहन का हाथ पकड़ ले जाता है। हम अचानक एक नए रिश्ते में बंध जाते हैं।
बहनों की भी दोहरी भूमिका हो जाती है। एक ओर मां-बाप, भाई बहन तो दूसरी ओर ठीक इसके उलट इन लॉ, माता-पिता की नई पहचान लिए नए चेहरे बहन को अपनी ओर खींचने लगते हैं। बहन दो घरों की डोर के बीच एक पुल बन जाया करती है। न इसे छोड़ सकती है। न उसे नाराज़ कर सकती है। दोनों ही कोनों पर बंधी बहन डोलने लगती है। भाई को मनाए कि पति को? फादर इन लॉ की मान रखे या पिताजी की इज्जत को बचाए। कितना मुश्किल होता है बहनों के लिए दो अलग अलग धाराओं के बीच खुद को डूबने और बहने से बचा पाना।
जब भाई बहन की शादी के बाद मिलता है तब बहन के सवाल और खेल बदल चुके होते हैं। वो अब पति को बुरा न लग जाए इसलिए भाई से गुजारिश करती है उनके भी बात कर लिया करो। बाहर बाबूजी बैठे हैं कुछ देर उनसे भी बातचीत कर लो। बेशक तुम्हारी इच्छा नहीं है लेकिन क्या करूं इन्हीं के साथ रहना है।
पति के जन्म दिन पर फोन कर के कहती है भाई आज उनका बार्थडे समय निकाल कर फोन कर देना। वरना सुनाते रहेंगे मुझे कोई पूछता नहीं। तुम्हारे घर वाले सिर्फ तुमने वास्ता रखते हैं आदि आदि। बहन के इस मनुहार पर गुस्सा नहीं आता बल्कि उसकी स्थिति पर सोचने और विचारने का मन करता है। क्या ये वही नीरू है जो इतनी अल्हड़ हुआ करती थी। जिसे अपना जन्म दिन याद नहीं रहता था मगर आज उनके जन्म दिन पर कितना चिंतित है।
बहन शादी के बाद ननद बन जाती है। ननद यानी उसकी अपेक्षाएं, उसकी उम्मीदों, उसकी इच्छाएं कहीं और से संचालित और निर्धारित होने लगती हैं। न चाहते हुए भी मान खोजती है। न चाहते हुए भी उम्मीद करती है कि भाई का फोन आए तो मैं जाउं। भौजाई फोन कर बुलाएं तो भाई के बच्चे को देखा आउं। बस यहीं एक फांस अटकी हुई है। भाई तो सोचता है बहन तो मेरी बहन है उस जब पहले बुलावे की चिंता नहीं थी तो अब क्यों मुंह फुलाकर बैठी है कि भाई ने फोन नहीं किया। शुरू में बहन को फर्क नहीं पड़ता था। लेकिन जब से ननद बनी है तब से इन लॉ आदि ने यह उसके दिमाग में ठूंसा है कि ऐसे कैसे जाओगी? क्या तुम्हारी कोई इज्जत नहीं? क्या तुम ऐसे ही उठ उठाकर चली जाओगी भाई भौजाई के घर? बुलावा और न्योता तो आने दो।
न्योता और बुलहटे के इंतजार में कई बार बहन पिछड़ती चली जाती है। इतनी पीछे छूट जाया करती हैं बहने की फिर वो भाइयो के दायरे से ही कई बार दूर निकल जाती हैं। यह प्रक्रिया इतनी तेजी से चलती है कि न वे समझ पाती हैं और न भाई ही।
बहने जब ननद बन जाती हैं तब इनकी भूमिका बदल जाया करती हैं। उनकी प्राथमिकताएं भी बदल जाती हैं। बहन से ननद में तब्दील हुई बहन को भी कई जगहों पर एडजस्ट करना होता है। साथ ही नई भूमिका की अपनी चुनौतियां होती हैं जिसके बीच सामंजस्य बैठना पड़ता है। बहन का ननद हो जाना कई दफ़ा उसके व्यवहार में भी झलकने लगती है और बोलचाल में भी। धीरे धीरे फोन का कम होना और हप्ते से माह और माह से और लंबी चुप्पी पसरने लगती है। काश की बहने ननद की भूमिका में रहते हुए बहन की भूमिका को भी निभा पाएं तो कितना बेहतर हो।
इसके साथ ही ऐसा नहीं है कि भाई भाई ही रहता है इसके व्यवहार में भी परिवर्तनी देखे जा सकते हैं। भाई जैसे पहले बहनों से बेबाकी से बात किया करता था उस बेबाकीपन में कहीं न कहीं तब्दीली दर्ज होने लगती है। फिर तो दोनों ही पक्षों से तर्क कुतर्क और आरोप प्रत्यारोप के खेल शुरू हो जाते हैं। इसे दूसरे शब्दों में ऐसे समझें कि भाई-बहनों के बीच अभिधा, व्यंजना और लक्षण में बातें होने लगती हैं। सीधी बात कम घूमाकर बातें की जाती हैं। यदि आपकी भाषायी समझ कम है तो व्यंजना को पकड़ नहीं पाएंगे।

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