Wednesday, October 31, 2018

मैं वो शहर बोल रहा हूं...



कौशलेंद्र प्रपन्न
लोकतंत्र के चारों पहरूएं रहा करते हैं। राजपथ और तमाम प्रथम पुरुष के निवास स्थान हुआ करते हैं। हां मैं ही शहर बोल रहा हूं जहां संसद में पास हुआ करती हैं सभी ज़रूरी कानून और लागू भी किए जाते हैं पूरे देश में। हां मैं वहीं से बोल रहा हूं। जहां साफ सफ्फाक लोग बसा करते हैं।
मैं उसी शहर से बोल रहा हूं। मेरे शहर का मौसम इन दिनों ज़रा ख़राब चल रहा है। मेरे शहर के पुल भी इन दिनों परेशान, धुंधले से हो गए हैं। न पुल न सड़क और पेड़ देख जा सकते हैं। सब के सब गोया धुंध के चादर में लिपटे हैं।
सुबह स्कूल जाते बच्चे। दफ्तर की ओर दौड़ते लोग, मजदूर सभी परेशान आंखों को मलते, खखारते नजर आते हैं। बच्चों को तो सांस लेने में भी परेशानी हो रही है। बुढ़े भी तो इसमें शामिल हैं। उन्हें भी सुबह टहलने की आदत बदलनी पड़ी है।
मैं कई बार सोचता हूं शहर कैसे शहर है। हालांकि मैं महानगर से बोल रहा हूं। उस महानगर से जहां सपने पलते हैं। ख़ाब जिंदा रखने की कीमत सेहद से चुकानी पड़ती है। सेहद भी गंवाई और सपने भी अधूरे रह गए तो इससे तो अच्छा था हम किसी छोटे शहर में ही रह लेते।
लेकिन क्या कोई ऐसा शहर बचा है जहां प्रदूषण न हो। क्या कोई ऐसा महानगर भारत में बचा है  जहां की हवा शुद्ध और सांसों में भरने के लिए ठीक हो। मेरे सवालों पर हंस सकते हैं। मुझे बेवकूफ मान सकते हैं। मानने में कोई हर्ज नहीं लेकिन मेरे सवालों और चिंताओं पर गौर कीजिए मैं गलत नहीं हूं। आप कहेंगे वाह! यह भी कोई बात हुई? हमने तुम्हें सपने दिए। सपनों को पूरा करने के लिए संसाधन दिए। और क्या चाहिए तुम्हें।
तुम्हें फास्ट रेल दिए। चार और आठ लेन की सड़कें दीं। रात भर चलने और जलने वाली गाड़ियां दीं। और भी तुम्हें चाहिए? क्या चाहते हो आख़िर?
एक चमचमाती सड़क किसे मयस्सर है आज? हर शहर और नगर, गांव और कस्बा चाहते हैं उनके यहां मॉल्स खुलें, मेट्रो दौड़े और तो और तुम्हें भी ऑन लाइन शॉपिंग का आनंद लेना है जो कुछ तो चुकाने होंगे। तुम्हें तुम्हारे शहर से दर्जी, नाई, जूता साज़, परचून की दुकानें मैं वापस लेता हूं। लेता हूं तुमसे वो तमाम स्थानीय सुविधाएं जिनमें तुम पले बढ़े थे। तुम्हें देता हूं घर बैठे शॉपिंग का मजा। पिज्जा और बरगर, मोमोज और मैक्रोनी का स्वाद। बस तुम्हें छोड़ने होंगे मौलवी साहब की छोटी सी दुकान, मास्टर सैलून से बाहर आना होगा। फिर मत कहना हमारे शहर से मास्टर सैलून की दुकान बंद हो गई और महंगी दुकाने खुल गईं जहां हजामत बनाने के पच्चास और सौ रुपए देने पड़ते हैं।

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