Tuesday, April 3, 2018

आज नदी खुश थी...



कौशलेंद्र प्रपन्न
खुश थी नदी कि उसके साथ पूरा गांव है। गांव के लोग उसके लिए लड़ने के लिए आग आ रहे हैं। लेकिन नदी की खुशी ज़्यादा समय पर बरकरार न रह सकी। कुछ लोग थे जो गांव के बाहर के थे। जिन्होंने गांव के लोगों को सपने दिखाने लगे कि यदि नदी पर बांध बनेगा तो लोगों को रोजगार मिलेगा। गांव के बच्चे शहर और महानगर नहीं जाएंगे। और भी थे वायदे जिसपर गाव के लोग लुठित हो रहे थे। वही पास खड़ी एक बुढ़ा पेड़ ग़मज़दा था। उसे मालूम था नदी अब वही नहीं रहेगी। नहीं रहेगी उसकी धार। पहले भी इस गांव और पेड़ ने ऐसे मंज़र देखे हैं। जब गांव को कहीं और बसाया गया था। कुछ उजड़ गए तो कुछ कहीं और चले गए।
नदी का क्या था। उसके अपने तो गांव ही था। गांव के लोग थे। जंगल और पहाड़ों के बीच से बहना ही उसका जीवन था। मगर अब उस पर भी दूसरां की नज़र लग गई थी। आख़िर नदी अपने मन की बात किससे कहती। कोई सुनने वाला नहीं बचा था।
क्या शहर और क्या गांव वैश्विक स्तर पर नदी को मोड़ने और बांध बनाने की चर्चा गर्म थी। जो खिलाफ में थे वे मुट्ठी भर बच गए थे। उन्हें कहा जाने लगा यह तो विकास ही नहीं चाहता। इसे बिजली नहीं चाहिए। इसे रेजगार नहीं चाहिए। पानी के धार पर स्टीमर चलते नहीं देख सकता। जलता है।
ऐसे में राजतंत्र से लेकर लोकतंत्र के चारों खंभों में चर्चा चल रही थी। दूसरी ओर नदी की उदासी देखी नहीं जाती थी। दिन प्रतिदिन नदी सूखने सी लगी। देखते ही देखते नदी की धार गांव छोड़कर दूर होती चली गई। कभी वक़्त था कि बच्चे खूब मजे में नहाया करते थे। पर्वतीनें इसी नदी में नहा कर खरना करती थीं। सूर्य देवता के पर्व रखा करती थीं। वो भी नदी के साथ उदास तो थीं पर उनकी सुनने वाला कौन था।
ऐसे ही हमारी नदी हमारे बीच से गायब हो जाएंगी। हो भी रही हैं। मगर किस पर और क्यांकर अंतर पड़ेगा। सभी को विकास चाहिए। विकास के नाम पर नदी और जंगल, पहाड़ और पर्वतों की बली चढ़ाई जा रही है।
नदी आज खुश कम उदास ज़्यादा थी।

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